-ईश कुमार गंगानिया
‘घर
वापसी’ के नाम
पर साम्प्रदायिकता का जहर घोलने का उपक्रम और धार्मिक उन्माद का तांडव अभी थमा भी
नहीं था कि इसी दौरान एक नई फिल्म आ गई जिसका नाम है ‘पी के’। इस फिल्म के
आते ही विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और आर. एस. एस जैसे संगठनों को जैसे एक नया
एसाईनमैंट मिल गया हो और इन संगठनों से जुड़े लोग पुन: सड़कों पर उतर आए और
प्रदर्शन ही नहीं किया बल्कि निजी व सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुचाने में जैसे
इनमें होड़-सी लग गई। सारे टी वी चैलनों और अखबारों ने भी काफी स्पेस दिया और
चारों ओर अजीब-सा अराजक माहोल पैदा हो गया। इस विवाद को आमिर खान के नायक की
भूमिका में होने को भी तुर्प के इक्के की तरह इस्तेइमाल किया गया और पूरे मुद्दे
को इस बात पर फोकस किया गया कि इरादतन एक मुसलमान द्वारा हिन्दू धर्म का अपमान किया गया है। इसे बर्दाशत
नहीं किया जाएगा। इस साजिश में शंकारचार्य महोदय ने तो सेंसर बोर्ड को ही घसीट
लिया और रिश्वत लेने जैसे आरोपों का बाजार भी खूब गर्म रहा।
गौरतलब है कि एक ऐसी ही एक फिल्म ‘ओ माई गॉड’ यानी ‘ओ एम जी’ लगभग एक-डेढ
वर्ष पहले भी आई थी लेकिन उस समय इस प्रकार की तोड़फोड़ नहीं हुई थी। उस फिल्म
में भी धर्म से जुड़ी पुरोहिती संस्कृति पर गंभीर सवाल उठाए गए थे और उसके केन्द्र
में भी मूल रूप से हिन्दू भगवान और पुरोहित संस्कृति के संवाहक ही थे। कुछ विरोध
के स्वर जरूर उठे थे लेकिन ऐसी हायतौबा नहीं हुई थ, जैसी आज हो रही है। मौजूदा
परिस्थितियां यह सोचने पर विवश करती हैं कि ओ माई गोड का नायक परेश रावल मुस्लमान
नहीं, हिन्दू है जबकि मौजूदा पी के फिल्म में नायक की भूमिका में आमिर खान है,
जो एक मुसलमान है। संभवत: इसीलिए धर्मांधता और धार्मिक शोषण से पर्दा उठाने वाली
इस फिल्म में धार्मिक एंगल को जबरन हवा दी जा रही है। कमाल की बात तो यह है कि
फिल्म के निर्माता ओर निर्देशक पर किसी ने कोई उंगल नहीं उठाई, क्या इसी लिए कि
वे हिन्दू है।
इस विवाद को राजनीतिक नजरिए से भी देखने की जरूरत महसूस हो रही है। इस नजरिए
से देखने पर हम पाते हैं कि यह फिल्म ‘ओ एम जी’ कांग्रेस के नेतृत्व वाली गठबंधन
की सरकार यू पी ए के दौरान आई थी और इस सरकार का किसी मंदिर-मस्जिद बनाने या
गिराने जैसा कोई तथाकथित खुला धर्मिक ऐजेंडा भी प्रमुखता से कभी नहीं रहा। इसके
विपरीत मौजूदा फिल्म ‘पी के’ एब्सोल्यूट मैजोरिटी प्राप्त भाजपा के नेतृत्व
वाली एन डी ए की सरकार के काल में आई है और यह भी किसी से छिपा नहीं है कि आर एस
एस, बजरंग दल व विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठन भाजपा के फीडर संगठन हैं। संभवत:
मंदिर-मस्जिद व धर्म से जुड़े मुद्दे भाजपा के ऐजेंडे में किसी न किसी रूप में अक्सर
प्राथमिकता से मौजूद रहते हैं। मुझे फिल्म ‘पी के’ के विवाद में धार्मिक कट्टरता
की भावना काम करती नजर आती है। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी ही परिस्थितियों के
निरंतर चलते रहने के परिणामस्वरूप ही आज अलकायदा व आई एस आई एस जैसे संगठन और
इनके आतंकी कारनामें सुर्खियों में हैं। मुझे लगता है कि प्रत्येक भारतीय नागरिक
की इतनी जिम्मेदारी तो बनती ही है है कि ऐसे मुद्दों पर निष्पक्षता व ईमानइारी
से चिंतन-मनन करे और समाज में अलकायदा व आई एस आई एस जैसी आतंकी प्रवृत्तियों को भारतीय जमीं पर
फलने-फूलने को निरुत्साहित करें।
मैं निजी तौर पर किसी भी व्यक्ति/संगठन द्वारा किसी भी मुद्दे पर
विरोध/असहमति दर्ज करने का विरोधी नहीं हूं। लेकिन विरोध के तौर-तरीके तर्कसंगत
होने चाहिएं। ये कुतर्कों और अनावश्यक हिंसा व तोड़फोड़ पर आधारित भी नहीं होने
चाहिएं। जहां तक ‘पी के’ की विषय-वस्तु का सवाल है और जिस रूप में यह मौजूद है,
मैं इसे विवाद का कारण नहीं मानता। मुझे लगता है कि कोई भी समाज व राष्ट्र के हित
में निष्पक्ष राय रखने वाला व्यक्ति ऐसे विवाद को नाजायज नहीं मानेगा। इस फिल्म
द्वारा रिकार्डतोड़ 800 करोड़ से भी अधिक का विजनेस किया जाना भी यही संकेत देता
है कि समाज का बहुसंख्यक वर्ग पी के के विरोध से इत्तेफाक नहीं रखता। मुझे यह भी
लगता है कि ऐसी फिल्मों व साहित्य का स्वागत होना चाहिए न कि विरोध, क्योंकि
ऐसी फिल्में और साहित्य समाज के समक्ष सिक्के का दूसरा पहलू प्रस्तुत करते हैं।
मेरा मानना है कि जब व्यक्ति के समक्ष सिक्के के दोनों पहलू होंगे तो वह अपने
विवेक के आधार पर ठीक/गलत और हित/अहित के विषय पर बेहतर विचार कर सकता है। लेकिन
किसी व्यक्ति व समाज के समक्ष धर्म व आस्था के नाम पर यदि एक ही पक्ष/पहलू रखा
जाए और किसी अन्य पक्ष पर विचार का अवसर ही न दिया जाए तो यह किसी लोकतांत्रिक
प्रकिया का हिसा कभी नहीं हो सकता। ऐसी
स्थिति में समाज में अमन-चैन सुनिश्चित नहीं हो सकता और न ही व्यक्ति व समाज
प्रगतिशील ही हो सकता है।
व्यक्ति व समाज के स्वस्थ लोकतांत्रिक हितों के मद्देनजर मुझे इस फिल्म
यानी ‘पी के’ के संबंध में अपना पक्ष पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने की जरूरत
महसूस हो रही है। परिक्षित साहनी इस फिल्म की नायिका जगतजननी यानी जग्गो के पिता
के रूप में मौजूद हैं। उनके जीवन का प्रत्येक क्रियाकलाप तपस्वी जी नामक
धर्मगुरु के अंधानुकरण का मोहताज है और इस धर्मगुरु के प्रत्येक शब्द का अंतिम
सत्य के रूप में अक्षरश: पालन होता है। यही वजह है कि जब उनकी बेटी जग्गो विदेश
में सरफराज नाम के किसी पाकिस्तानी नागरिक से प्रेम-प्रसंग व विवाह की बात करती
है तो आनन-फानन में तपस्वी जी का ही दरवाजा खटखटाया जाता है और तपस्वी जी इसे
आत्महत्या जैसा करार देते हुए कहते हैं, ’’सरफराज धोखा देगा, छल-कपट
के अलावा कुछ नहीं होगा, वह शरीर का भोग करेगा और भाग जाएगा, डिलीट का बटन दबाओ और
उसे अपने जीवन से निकाल दो।‘‘ ऐसे
निष्कर्ष किसी व्यक्ति के साथ प्रत्यक्ष साक्षात्कार व अनुभव के आधार पर या
किसी ठोस और विश्वसनीय जानकारी के आधार पर तो स्वीकार्य/अस्वीकार्य हो सकते हैं
लेकिन किसी धार्मिक कुशलता/पुरोहितगिरि के आधार पर नहीं। इस बात से भी इंकार नहीं
किया जा सकता कि इंटर-रिलीजन, इंटर-कास्ट व इंटर-स्टेट (राज्य) विवाह के मामले
में आपसी वैचारिक व बौद्धिक तारतम्य व सूझबूझ के बावजूद कुछ असुविधाएं/समस्याएं
हो सकती हैं लेकिन बिना किसी वैज्ञानिक चिंतन-मनन व तर्कयुक्त आधार के ऐसे
विवाहों की उपयोगिता व महत्व को सिरे से नकारा नहीं जा सकता।
पी के फिल्म में तथाकथित धर्मगुरुओं द्वारा जारी ऐसे ही फतवों और
क्रियाकलापों को रॉंग नम्बर की संज्ञा दी जाती है। इस फिल्म में विभिन्न
उदाहरणों के द्वारा यह दिखाया गया है कि जो जानकारी तथाकथित धर्मगुरुओं द्वारा ईश्वर
के नाम पर दी जाती है, वह संपर्क-सूत्र गलत हैं यानी रॉग नम्बर हैं और व्यक्ति
के अपने पुरोहिती दिमाग की उपज है। अर्थात यह फिल्म यह स्थापित करने की जद्दोजहद
करती है कि ईश्वर के तथाकथित प्रतिनिधि या धर्म के ज्ञाताओं द्वारा जो जानकारी
ईश्वर के नाम पर दी जा रही है, वह जानकारी वास्तविक ईश्वर अथवा धर्म प्रदत्त
नहीं है। जानकारी देने वाला ही रॉग नम्बर है। यह व्यक्ति और तथाकथित ईश्वर के
बीच का मीडिलमैन ही असली रॉग नम्बर है।
इस फिल्म में फिल्म के नायक यानी पी के को दूसरे ग्रह का दिखाए जाने का स्पष्ट
संकेत है कि वह भारतीय संस्कृति, रिति-रिवाज, भाषा, धर्म व ईश्वर/अल्लाह/ईसा/बुद्ध/महावीर/नानक
आदि और पूजा घरों में मौजूद तथाकथित ईश्वर के प्रतिनिधियों के विषय में कोई
जानकारी नहीं रखता। इतना ही नहीं बल्कि वह कपड़ों तक के विषय में यह भी नहीं जानता
कि कपड़े क्यों पहनते हैं, आदमी के कपड़े अलग, स्त्री के अलग, दिन और रात के
कपड़े अलग और विभिन्न जीवन-मरण व शादि-विवाह जैसे अवसर पर पहने जाने वाले कपड़े
अलग होते हैं। फिल्म के नायक का पृथ्वी जैसे उपग्रह से बिल्कुल अनजान होने का एक
बेहद सकारात्मक संकेत यही है कि यह व्यक्ति को एकदम निष्पक्ष होने और किसी भी
पूर्वाग्रह से मुक्त होने की स्थिति में रखकर रॉग नम्बर/तथाकथित धर्मगुरुओं
(यानी सभी धर्मों से जुड़े तथाकथित ईश्वर
के प्रतिनिधियों) और इस धरती पर मौजूद सभी प्रकार के धर्म-तत्रों को समझने
की ठोस व विश्वसनीय जमीन तैयार करता है।
इस प्रकार की परिस्थितियों के माध्यम से यह फिल्म एक प्रकार से यह आग्रह
करती है कि आप पहले से जो कुछ भी जानते हैं या जो कोई भी आपकी पूर्व-मान्यताएं,
संस्कार, ज्ञान, अनुभव आदि हैं उनसे मुक्त/विहीन व्यक्ति अपने दिलो-दिमाग को
क्लियर स्लेट की तरह इस्तेमाल करके अपने चारों ओर के माहौल में कैसे आचरण करता
है और दर्शक ढाई घंटे के लिए ईश्वर, उससे जुड़े धार्मिक तंत्र और दुनियादारी को
समझने का एक अलग प्रकार का अनुभव प्राप्त होता है। यह फिल्म दर्शकों को अपने
जीवन को सुकून से जीने व उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होने का मार्ग और अपने जीवन
से जुड़े क्रियाकलापों की तलाश स्वयं करने का अवसर प्रदान करती है। जब हम ऐसी
मानसिकता के साथ फिल्म को देखते हैं तो विवाद के लिए कोई जगह ही शेष नहीं रह
जाती। इसके विपरीत व्यक्ति में तर्क-विवेकपूर्ण व सम्यक आत्ममंथन की स्थिति
पैदा होती है तो जाहिर है कि परिणाम बेहद सकारात्मक व उत्थानकारी होंगे। इस फिल्म
का या ऐसी प्रगतिशीलता व वैज्ञानिकता पर आधारित क्रियाकलापों का विरोध सिर्फ
विरोधियों के निजी स्वार्थ व संकीर्ण सोच का परिचायक हो सकता है, किसी विस्तृत
व सार्वभौमिक कल्याण का हिस्सा कभी नहीं। इसलिए किसी निजी हितों और संकीर्ण
विचारधारा के कारण अनावश्यक रूप से किए जाने वाले विरोध का सदैव जोरदार खंडन होना
चाहिए न कि मूकता के माध्यम से प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन।
कहने की जरूरत नहीं कि आज इक्कीसवीं सदी में भी जहां पूरी दुनिया अपने आपको
ग्लोबल विलेज के नागरिक के रूप में देखती है, वहीं भारत की भूमि पर तथाकथित धर्म
व संस्कृति के पैरोकार कुछ संकीर्ण लोग अपने निजी हितों की पूर्ति के लिए पी के
जैसी फिल्मों के विरोध की आड़ में समाज को धर्मभीरू व अंधविश्वासी बनाए रखना चाहते
हैं और वैश्विक प्रगति में बाधा उत्पन्न करते हैं। ये वो कारनामें हैं जो
धार्मिक आतंकवाद के लिए जमीं तैयार करने के लिए बेहद मुफीद हैं।
इस फिल्म में नायक यानी ‘पी के’ की सबसे पहली छटपटाहट या संघर्ष भाषा को
सीखने को लेकर होता है ताकि यह नायक अन्य व्यक्तियों की बात समझ सके और अपनी कह
सके। यही छटपटाहट मुझे ‘कलर’ टी वी चेनल पर 8.30 पर दिखाए जाने वाले टी वी सीरियल
‘उड़ान’ में नजर आती है। इस सीरियल में बंधुआपन से मुक्ति के लिए केवल और केवल
शिक्षा को ही एक मात्र साधन माना गया है। लेकिन यहां का दबंग जमींदार व नेता यानी ‘भईया
जी’ शिक्षा को बंधुआ बस्ती के लोगों व उनके बच्चों तक पहुंचने से रोकने के लिए
क्रूरतम हथकंडे अपनाता है और अत्याचार करता है। इस सीरियल को 21वीं सदी में
दिखाया जाना स्पष्ट संकेत देता है कि राईन टू ऐजुकेशन के बावजूद आज भी ऐसे
नर-पिशाच भारतीय समाज में मौजूद हैं जो शिक्षा के ही नहीं बल्कि इंसानियत के भी
दुश्मन हैं।
चलिए टी वी सीरिल की बात छोडि़ए बीसवीं सदी के दलित लेखकों के आत्मवृतों (आत्मकथओं)
पर दृष्टिपात करें तो हम पाते हैं कि दलित शोषित समाज के बच्चों को शिक्षा के लिए
अनेक प्रकार से अपमानित और हतोत्साहित किया जाता रहा है। इसकी भयावहता को समझने
के लिए डा. बी. आर. अम्बेडकर के जीवनवृत को देखा जा सकता है। इससे भी पहले मनुस्मृति
जैसे तथाकथित गुलाम भारत के अघोषित संविधान पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि
वेदों (जिन्हें सारे ज्ञान और विश्व के सारे अविष्कारों व मार्गदर्शन की
कुंजी कहा जाता है) के गलती से सुनने या
वेदों के शब्द कानों में पड़ने भर से शुद्रों/दलित-शोषितों के कानों में शीशा
पिघलाकर डालने की कानूनी व धार्मिक व्यवस्था रही है। यहां इन सब से जुड़े उद्धरण
प्रस्तुत करना विषयांतर होगा। इसलिए यहां सकेत मात्र दिया जा रहा है।
नहीं भूलना चाहिए, 26 जनवरी 2015 के गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में
मौजूद अमेरीकी राष्ट्रपति जिसके लिए हमारे देश के प्रधानमंत्री और पूरा देश
दो-तीन दिन तक पलख-पावड़े बिछाए रहा, को भी भारत में व्याप्त भेदभाव, कड़वाहट व
असहिष्णुता पर टिप्पणी करने को मजबूर होना पड़ा। लगता है कि यह पूरे देश के लिए
चिंता की ही नहीं बल्कि गैरत की बात है क्योंकि एक अतिथि यानी अतिथि देवो भव:
जैसी स्थिति के बावजूद बराक ओबामा को समाज में व्याप्त असहिष्णुता के संबंध
में टिप्पणी करनी पड़ी जिसकी गूंज भारत में ही नहीं पूरी दुनिया तक पहुंची।
फिल्म पी के के विवाद के संबंध में मुझे लेकिन व्हाट्स एप्प पर प्राप्त व्यंग्य,
जो भारतीय समाज पर सटीक बैठता है, को पाठकों से साझा करना प्रासंगिक महसूस हो रहा
है। यह व्यग्य कुछ इस प्रकार है-’’ एक अमेरिकन भारत आया और
वापस अमेरिका गया। वहां वह अपने भारतीय मित्रों से मिला। उन्होंने उससे
पूछा-‘आपको हमारा देश कैसा लगा ? अमेरिकन ने कहा कि एक
जबरदस्त इतिहास के साथ यह एक महान देश है। उसने यह भी कहा कि यहां प्राकृतिक
संसाधन भी प्रचुर मात्रा में हैं। फिर भारतीय दोस्तों ने अमेरिकन से पूछा कि आपको
भारतीय कैसे लगे? इस पर उसने प्रश्नवाचक
दृष्टि व आश्चर्यपूर्वक कहा - भारतीय?? कौन भारतीय?? मुझे वहां भारत में कोई भी भारतीय नहीं मिला। क्या
बेवकूफी है, भारतीयों ने झल्ला कर कहा। फिर भारत में आप किससे मिले ? ? उसका जवाब था-मैं कश्मीर में कश्मीरी से, पंजाब में
पंजाबी से, बिहार में बिहारी से, महाराष्ट्र में मराठी से, राजस्थान में
मारवाड़ी से, बंगाल में बंगाली से, तमिलनाडू में तमिल से, केरल में मलयाली से, फिर
मैं हिन्दू, मुस्लमान, ईसाई, जैन, बौद्ध और सिख से मिल और बहुत-बहुत सारे लोगों
से मिला लेकिन मुझे एक भी भारतीय नहीं मिला।’’ शुक्र है कि इस व्यंग्य में राज्यों
और धर्म को ही शामिल किया गया है वरना जातिगत विभाजन और क्रूरता को शामिल किया
जाता तो स्थिति इससे भी अधिक भयानक होती। जाति के आधार पर होने वाली रोजमर्रा की
घटनाओं की बानगी के रूप में दिनांक 17.02.2015 को न्यूज 24 आठ बजे ‘ये है इंडिया’
वाले बुलेटिन का उल्लेख किया जा सकता है। हुआ यूं कि उत्तर प्रदेश के एक गांव में
एक दलित (चमार) द्वारा ठाकुरों के साथ पंगत में बैठकर खाना खा लिया और यह इतना
बड़ा जुर्म हो गया कि उसकी पिटाई से ही मन नहीं भरा और उसकी नाक ही काट दी। इस
घटना पर एंकर बार-बार दोहराता है कि यह व्यक्ति की नहीं, देश की नाक कटी है, देश
की नाक कटी है...। लेकिन जातिवादियों पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता और ऐसी घटनाएं
रोज घटती ही रहती हैं। यह जातियों में ऊंच-नीच व गुलामी बनाए रखने का एक
तरीका है और पी के का विरोध धर्मिक दादागिरि बनाए रखने का एक दूसरा।
इस फिल्म के संबंध में पहला सवाल यह उठता है कि पी के
मंदिर व अन्य इबादतगाहों में क्यूं जाता है। इसकी वजह साफ है इस देश में सबकुछ
ईश्वर और अल्लाह ही करते हैं, व्यक्ति कुछ नहीं करता। तभी तो जब पी के दिल्ली जाकर अपने रिमोट के
खोने की शिकायत पुलिस से करता है और मदद मांगता है तो पुलिस वाले कहते हैं कि हम
भगवान नहीं हैं। तेरी मदद तो भगवान ही करेगा। हर काम में भगवान और... हर कार्य
भगवान करेगा... । इसी लिए वह भगवान की मर्ति बेचने वाले की दुकान पर जाता है और
हैरान होता है कि भगवान को इंसान ने बनाया है और वह भी अलग-अलग साईज का। वह जांच
पड़ताल कर एक भगवान की मूर्ति खरीदता है और वह पूछता है कि छोटा भगवान यानी भगवान
की छोटी मूर्ति भी काम करती है क्या। वह पहली फरियाद खाने की करता है और भिखारियों की लाईन में उसे
समोसा/खाना मिल जाता है तो वह समझता है कि भगवान काम कर रहा है लेकिन बाद में वह उसकी
रिमोट ढूंढवाने व अन्य जरूरतों को पूरा करने की मांग पूरी नहीं करता तो वह बड़ी
ही मासूमियत से पूछता है कि इसकी बैटरी फेल हो गया क्या। यह वह बिंदू है, जो ‘ईश्वर
ही व्यक्तियों के सारे कार्य का साधन/निमित है’ पर गंभीर सवाल उठाता है। दरअसल,
व्यक्ति के कार्य करने से, अपने तरीके से और किसी न किसी माध्यम से होते हैं।
लेकिन धर्म के मैनेजरों द्वारा व्यक्ति के जन्म से ही घुट्टी के रूप पिलाया जाता
है कि जो कुछ भी होता है, वह भगवान ही करता है और उसकी मर्जी के बगैर पत्ता तक
नहीं हिल सकता।
इस सोच का एक पहलू यह हो सकता कि व्यक्ति अहंकार से बचकर अपना कार्य ईमानदारी
से करता रहे। लेकिन हो इसका उल्टा रहा है कि व्यक्ति अपने पुरुषार्थ की अपेक्षा
अपने भाग्य और भगवान को मोहताज हो गया है। ऐसी सोच व्यक्ति को निकम्मा व कमजोर
बनाती है। इस फिल्म के माध्यम यह भी बताया गया है कि वहां मंदिर जाने वाले लोग
जूतों तक की चोरी करते है और जूते बदले जाना रोटेशन की स्वाभाविक प्रक्रिया का
हिस्सा है। ऐसे कार्य व्यक्ति को अंधविश्वासी और अनैतिक बनाते है। इस फिल्म
में पूजा स्थलों के माध्यम से पूजा पद्धति व चढावे की सामग्री आदि एक विवेकयुक्त
व्यक्ति (पी के) का न तो हित साधने में सहायक होती है और ही उसे सुकून ही दे पाते
हैं। विभिन्न पूजा स्थलों पर दान पेटियों का अलग से होना तथाकथित धार्मिक स्थलों
के व्यवसायीकरण की प्रवृत्ति को पुख्ता करता है। मौजूदा फिल्म में इन आडंबरों
से पर्दा उठाना धर्म का विरोध कैसे हो गया। यह निजी स्वार्थ व संकीर्णता का
परिचायक हो सकता है किसी निष्पक्ष व विवेकपूर्ण मानवहितकारी सोच का हिस्सा
संभवत: कभी नहीं।
कहने की जरूरत नहीं कि इस फिल्म का
आना इसलिए भी स्वागत योग्य है क्योंकि यह फिल्म धर्म के नाम पर हमारा अनावश्यक
भटकाव रोकने में मदद करती है। यदि मैं यह कहूं कि यह फिल्म सबसे अधिक हिन्दुओं के
हित में है तो अनुचित नहीं होगा क्योंकि आप किसी भी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे या
चर्च में चले जाएं वहां हिन्दुओं की अच्छी खासी उपस्थिति सहज ही देख्ने को मिल
जाएगी। यानी एक हिन्दू ही ऐसा धर्म है जिसका व्यक्ति अपने करोड़ों देवी-देवताओं
और भगवानों के होते हुए अन्य धर्मों के दर पर मत्था टेकता नजर आता है। ऐसा क्यूं
है, यह सवाल अपने आप में बेहद महत्पूर्ण है। मुझे इसकी वजह यह लगती है कि हिन्दू
धर्म में व्यक्ति को स्वतंत्र चिंतन का अभाव है। और इनके प्रत्येक सांस का
आवागमन व जीवन से जुड़ी प्रत्येक गतिविधि ईश्वर की मौजताज है। जब व्यक्ति के
कार्य उसकी इच्छा के अनुरूप नहीं होते हैं तो वह हिन्दुओं के अलग-अलग भगवानों की
शरण में जाता है और अंतत: अन्य धर्मों के भगवानों के सामने भी अपने फरियाद करने
से नहीं चूकता।
सभी धर्मों और उनके भगवानों का सम्मान करना एक बात है, लेकिन अपनी मन्नत
पूरा करने की गरज से दर-दर भटकना उसकी बौद्धिकता, निष्ठा व विवेक पर प्रश्न चिन्ह
लगाता है। साफ है कि ऐसे व्यक्ति को अपने पर तो भरोसा है ही नहीं बल्कि अन्य
किसी भगवान पर भी भरोसा नहीं है। ऐसे व्यक्ति हमेशा ही, यदि पी के शब्दों में
कहूं तो ‘फर्सटेटिया’ ही रहता है और वह कोई ठोस व सकारात्मक करने की स्थिति में
नहीं रहता जो उसकी दुर्दशा का सबब बनता है। इस फिल्म का पी के इसका जीता जागता
उदाहरण है। वह मंदिर जाता है, चर्च जाता है, मस्जिद जाता है, गुरुद्वारे जाता है
और वह बुद्ध व जैन (महावीर) से भी फरियाद लगाता है। सिर्फ फरियाद ही नहीं लगाता
बल्कि लेट-लेट कर भगवान तक जाता है अपनी पीइ को लहु-लहान कर लेता है जैसे मुहर्रम
के दिन आमतौर पर देखने को मिलता है लेकिन
परिणाम वही ढाक के तीन पात यानी वह बुरी तरह ‘फर्सटेटिया’ जाता है। यही हाल आज
समाज हमारे चारों ओर आसानी से दखने-सुनने को मिलता है। गौरतलब है कि पी के को
सफलता स्वयं अपने पुरुषार्थ से ही मिलती है, न कि किसी भगवान के रहमोकरम की
बदौलत।
यह फिल्म विशेष रूप से मंदिर बनाने की प्रक्रिया पर सवाल उठाती है। यहां तपस्पी
जी पी के के रिमोट को शिव के डमरू का मनका बताते हैं और इस मनके को मंदिर बनाकर उसमें
स्थापित करने के लिए भगवान शिव की आज्ञा बताते हैं। पब्लिक भी अंधश्रद्धा के कारण
ऐसा मान लेती है और धर्म के मैनेजरों के झांसे में आ जाती है। लेकिन मौजूदा फिल्म
पी के में नायक तपस्वी जी को रॉंग नम्बर सिद्ध कर देता है। वह यह भी सिद्ध कर
देता है कि व्यक्ति या उसका कोई संबंधी बीमार पड़ जाता है तो उसे डाक्टर के पास
जाना चाहिए और स्वयं उसकी देखभाल करनी चाहिए न कि 2000 किलोमीटर दूर किसी ईस्ट/भगवान/देवी-देवता
से फरियाद करने किसी पहाड़ पर, जैसाकि तपस्वी जी बताते हैं। यह तपस्वी जैसे धर्म
के मैनेजरों व व्यक्ति की अंधश्रद्धा व स्वार्थ का ही परिणाम है कि दिल्ली जैसे
महानगर में भी मंदिर निर्माण की बाढ सी आई है। आप किसी भी चौराहे या रैड लाईट के
आसपास नजर डालेंगे तो आपको कोई न कोई मंदिर नजर आ आएगा। ये मंदिर अधिकांशत: जमीनों
पर नाजायज कब्जा करके बनाए जाते हैं। पहले जैसा पी के में दिखाया गया है। जग्गों
के पिता की आंखे खोलने के लिए भी पी के एक पेड़ के पास पत्थर रखता है और उसे खाने
वाले पान (चूना-कत्था) से लाल कर देता है और कुछ चिन्ह बनाता है। वह कुछ फूल व
पैसे भी रख देता है और जग्गो के पिता के साथ दूर खड़े होकर देखता है। देखते ही
देखते वहां मन्नत मांगने वाले लोगों की भीड़ और चढ़ावा चढाने वाले भी इक्ट्ठा हो
जाते हैं।
ऐसी ही प्रक्रिया दिल्ली में अनेक मंदिरों के निर्माण से जुड़ी है। यह सामान्य
से पत्थर व ईंट आदि से शुरु हुई पूजा-पाठ की प्रक्रिया दिनों व महिनों में ही
परवान चढ़ने लगती है और भक्तों की संख्या में गुणोत्तर वृद्धि होती रहती है। चंद
वर्षों में ही देखते-देखते ऐसे पूजा स्थल प्राचीन मंदिर का रुतबा हासिल कर लेते
हैं और दुकानें आदि इसका अगला एक्सटैंशन होती हैं। फिर ये निरंतर वाहनों की
पार्किंग व ट्रेफिक जाम व अनेक समस्याओं का गढ़ बन जाता है। यहां सवाल यह है कि
हम खुद ईधर-उधर की बातें करके अनैतिक तरीके से मंदिर बना लेते हैं, स्वयं इंसान
की बनाई मूर्ति इसमें स्थापित कर लेते हैं और स्वयं ही किस्से कहानियों को गढ़ कर हम बेबस व्यक्ति को और अधिक
बेबस बनाते हैं। यह फिल्म अवैध निर्माण और झूठ-थपान की संस्कृति को बेनकाब ही
नहीं करती बल्कि सार्वजनिक हित में एक रचनात्मक भूमिका अदा करती है। लेकिन ऐसी
फिल्म का विरोध बड़े ही हैरत की बात है क्योंकि
आज के वैज्ञानिक युग में भी लोग लकीर के फकीर बने रहने को अपना धर्म और संस्कृति
समझने की नासमझी करते हैं।
गौरतलब है कि अपनी तर्कहीन बात को रखने के इन धर्म के मैनेजर लोगों के तर्क भी
अद्भुत होते है। कभी वे कहते हैं कि धर्म आस्था का प्रश्न है और इसमें किसी
प्रकार के तर्क व प्रश्न पूछने के लिए कोई जगह नहीं है। इस फिल्म में गलत बात को
इमोशनल ब्लैकमेलिंग की तर्ज पर ठीक सिद्ध करने की जिद साफ नजर आती है। इस फिल्म में
‘तपस्वी जी’ कहते हैं कि कुछ लोग हाथ की नस काट लेते हैं, जहर खा लेते हैं, आत्महत्या
कर लेते हैं क्योंकि उनके पास उम्मीद नहीं है, उनके पास भगवान नहीं है। अगर हम
भगवान के नाम पर उन्हें इन सबसे बचाते हैं और उम्मीद देते हैं तो क्या बुरा
करते हैं। वह पी के पर आरोप लगाते हुए कहते हैं कि यह हमें रॉग नम्ब्र, रॉग नम्बर
कहता रहता है। और आक्रोश भरे अंदाज में पूछते हैं कि बता क्या है सही नम्बर। इस
हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता कि धर्म के मैनेजर उम्मीद देते हैं और व्यक्ति
उस उम्मीद के सहारे टिका रहता है। लेकिन इस संबंध में दीगर सवाल यह है कि आखिर कब
तक....। एक न एक दिन उसे सच्चाई से दो-चार होना ही पड़ेगा। फिर परिणाम और अधिक
भयावह होते हैं और इनसे होने वाली क्षति अपूर्णीय होती है। यदि व्यक्ति शुरु में
ही हकीकत से रूबरू हो जाए तो वह अपने जीवन को जीने के अन्य तौर-तरीके अपनाकर एक
सामान्य या पहले से बेहतर जीवनयापन कर सकता है। ऐसी झूठी उम्मीदों के सहारे कुछ
समय भ्रम मे जीने से अच्छा है की सच का सामना करना। इस संबंध में मुझे फिल्म के
नायक पी के का तर्क काफी वजनी महसूस होता है जब वह कहता है कि हम कौन से भगवान पर
भरोसा करें। एक-उस पर जिसने सबको बनाया है और तुम उसके बारे में कुछ नहीं जानते।
दो- उस पर जिसको इंसान ने बनाया। वह तपस्वी जी को संबोधित करने हुए कहता है कि उसके
नाम पर घूस लेते हो, झूठे वायदे करते हो। अमीरों को जल्दी सबकुछ मिल जाता है और
गरीबों को देर में। तारीफ से खुश होते हो और बात-बात में डराते हो और अंत में कहता
है कि जिसने सबको बनाया उसपर विश्वास करो डुप्लीकेट का हिस्सा हटा दो। यह फिल्म
साफ संकेत देती है कि तथाकथित ईश्वर और उसके बीच के मीडिलमैन यानी रॉंग नम्बर पर
भरोसा मत करो। वहीं सभी विवाद व शोषण-उत्पीड़न की जड़ है।
इस फिल्म में धर्म के आतंकवादी एंगल को भी बखूबी दिखाया गया है। यह ऐपीसोड
फिल्म स्टार संजय दत्त से जुड़ा है। वह माण्डवा से उस गवाह को ला रहा होता है
जो पी के के रिमोट छीनने और इसे बेचने वाला अकेला सुबूत था। यदि वह आ जाता तो तपस्वी
जी (धर्म के मैनेजर) के झूठ का पर्दाफास हो जाता। लेकिन ऐसा हो न सका क्योंकि
तथाकथित धर्म के रक्षकों के द्वारा रेलवे स्टेशन एक बम विस्फोट किया जाता है और इस
विस्फोट में संजय दत्त और उस गवाह की जान चली जाती है जिसने पी के का रिमोट छीना
था और बाजार में बेचा था। इस पर पी के कहता है कि एक भाई ने भगवान की मदद करने की
कोशिश की (यानी भगवान के नाम पर झूठ बोलने वाले को एक्सपोज करना) तो सिर्फ जूता
रह गया (इस बंम विस्फोट में संजय दत्त की पहचान जूते से होती है क्यों शरीर नाम
की कोई चीज एक बम विस्फोट में बची ही नहीं थी)। एक दिन आदमी चला जाएगा और सिर्फ
जूता रह रह जाएगा इस संसार में। यह बहुत बड़ा संदेश है जो आतंकवाद के घिनौने चेहरे
को बेनकाब करता है। 17 फरवरी को अमेरिका के वाशिंगटम में किसी मंदिर पर हमला होना
और दीवार पर ‘गेट आउट’ लिखा होने भी धार्मिक कट्टर का ही नमूना है। यदि इस अमेरिकी
घटना को भारतीय चर्चों पर हमले व घर वापसी जैसे कारनामों की प्रतिक्रिया के रूप
में देखा जाए तो यह पूरी तरह गलत नहीं होगा। इसलिए दुनिया में अमन-चैन के लिए
जरूरी है कि धार्मिक और इंसानी सौहार्द बना रहना चाहिए। आतंकवाद पर करारा प्रहार
करने वाली इस फिल्म का विरोध कितना तर्कसंगत है, निस्संदेह यह विचारणीय मुद्दा
है।
इस फिल्म में ‘पी के’ नाम के पात्र के विषय में यह बार-बार कहा जाता है कि
‘पी के’ सवाल बहुत पूछता है। सवाल पूछना अपने आप में एक सकारात्मक वैज्ञानिक
दृष्टिकोण है। यह किसी भी मस्तिष्क की क्रियाशीलता का लक्षण है। मजे की बात यह है
कि इस फिल्म में ‘पी के’ प्रत्येक जानकारी प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित है। इस
प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर ही उसे पता चलता है कि व्यक्ति कपड़े क्यूं पहनता
है। उसे पता चलता है कि धर्म के मैनेजर अलग-अलग हैं। हर मैनेजर के यहां ईश्वर अलग
है, पूजा पद्धती अलग है और पूजा के स्थान भी अलग-अलग प्रकार के हैं। वह यह भी
जानता है कि अलग-अलग धर्मों के मैनेजरों ने शादि-विवाह व मृत्यु के अवसर पर पहने
जाने वाले कपड़े भी अलग-अलग निर्धारित किए हैं। पी के रूपए पर गांधी जी की फोटो
होने और उसके अन्य जगह पर होने के अंतर को भी प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर ही
जानता है। पी के सारे क्रियाकलापों और जानकारी का आधार प्रश्न पूछना ही है और
इसके आधार पर जो समझ बनती है वह वैज्ञानिक और रचनात्मक है और भारतीय समाज का आईना
दिखाने वाली है। आज की हमारी शिक्षा पद्धति का आधार भी लर्निग बाई डूईंग यानी
‘करके सीखो’ के सिद्धांत पर अनुभव द्वारा सीखने पर आधारित है। मौजूदा फिल्म में पी
के द्वारा अनुभव द्वारा सीखने की यह प्रवृत्ति मुझे आजीवक यानी चार्वाक/लोकायत
संस्कृति की याद दिलाता है जिसे आर्यों ने अलग-अलग आरोप, षडयंत्रों व नृसंश
नरसंहारों के द्वारा किया था। पी के का विरोध कहीं इतिहास की पुनरावृत्ति का हिस्सा
तो नहीं ?
अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर ‘पी के’ के सवाल पूछने के पीछे वजह क्या है और
इस फिल्म में पी के प्रश्न पूछने से हमारा क्या लेना-देना हो सकता है। मेरी
दृष्टि में और भारतीय परिपेक्ष्य में यह प्रश्न पूछना महत्वपूर्ण हैं। दरअसल,
भारतीय समाज में व्यक्ति का प्रत्येक क्रियाकलाप उसके जन्म से लेकर मृत्यु तक
यदि पी के शब्दों में कहा जाए जो धर्म और संस्कृति के मैनेजर ही तथाकथित अपने
धार्मिक साहित्य के आधार पर तय करते हैं। हमारा धर्म प्रश्न पूछने की मनाही करता
है क्योंकि इससे धर्म तंत्र खतरे में पड़ सकता है। शायद इसी लिए इसका विरोध हो
रहा है। इस प्रश्न पूछने के विरोध का जवाब संभवत: हेबर्ड स्पेंसर की
टिप्पणी बेहतर दे सकती है जो इस प्रकार है-‘‘...हिन्दू जीवन में धर्म उसके
प्रत्येक क्षण को नियमित करता है। वह उसे आदेश देता है कि अपने जीवन काल में कैसा
आचरण करें,
तथा उसकी मृत्यु के उपरान्त उसके शरीर का क्या किया जाए।
धर्म उसे यह बताता है कि स्त्री के साथ मिलने वाला सुख कब और कैसे प्राप्त करें।
जब बच्चा पैदा हो जाए, कौन-कौन
से धर्मानुष्ठान किए जाने हैं-उसका क्या नाम रखा जाए, उसके सिर के बाल कैसे काटे जाएं, उसको पहला भोजन कैसे कराया जाए, वह कौन सा व्यवसाय करे, किस स्त्री के साथ विवाह करे, यह बात उसे धर्म बताता है। वह किसके साथ
भोजन करे, कौन सा अन्न खाए, कौन सी सब्जियां विधिवत हैं और कौन सी
निसिद्ध, उसकी दिनचर्या
कैसी हो, कितनी बार वह
भोजन करे और कितनी बार प्रार्थना करे, धर्म इन
सबका नियमन करता है। हिन्दू का कोई ऐसा कार्य नहीं, जिसका धर्म में अंतर्भाव न हो अथवा जिसके लिए धर्म का आदेश
न हो।’’ यह धर्म द्वारा सबकुछ तय कर देना और प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति का नकारव
व्यक्ति को अंधविश्वासी बनाता है और उसके दृष्टिकोण को वैज्ञानिक होने के सभी
खिड़की व दरवाजे बंद करता है। यही वजह है कि भारती दुनिया की आबादी का छटवां हिस्सा
होने के बावजूद अविष्कारों की दोड़ में कहीं नजर ही नहीं आता। मुझे लगता है पी के
विरोध भारत को अवैज्ञानिक बनाए रखने की नासमझी है, पी के के विरोध को जायज नहीं
ठहराया जा सकता।
पुन: मैं पी के के प्रश्न पूछने पर आता हूं। प्रश्न पूछना
तार्किक व वैज्ञानिक सोच व दृष्टिकोण का परिचायक है। लेकिन भारत में सारे कार्य या
तो आस्था के नाम पर होते हें या भाग्य और भगवान के नाम पर। धर्म के मैनेजर अपने
हितों को साधने के लिए ऐसा कर रहे हैं और धर्म का व्यवसाय आम बात हो गई है। पी के
के शब्दों में कहें तो ये रॉग नम्बर है। ये रॉग नम्बर इस लिए भी हैं कि एक ओर
तो धार्मिक चोला पहने हैं और दूसरी ओर सभी प्रकार के उत्पाद बेच-बेच कर सैंकड़ों,
हजारों करोड़ की संपत्ति बनाए हुए हैं। फाईव स्टार कल्चर के मोजताज हैं। इतना ही
नहीं जब ये जैड प्लस सिक्योरिटी लिए है। ऐसे स्थिति में लगता है कि ये दोनों एक
साथ संभव नहीं हो सकती। कजह साफ है यदि कोई बाबा है/संयासी तो उसे सिक्योरिटी की
जरूरत नहीं और यदि उसे जरूरत हैं तो वह बाबा नहीं। यदि बाबा होकर जैड प्लस जैसी
सिक्योरिटी लेना उनके बाबा-संयासी होने पर बड़ा सवाल है। आज के बाबे सबकुछ करते
हैं और जनता को धर्म के नाम पा गुमराह करते हैं। फिल्म पी के ऐसे बाबाओं पर सवाल
उठाने की जुर्रत करती है। जनता इनका साथ इसलिए देती है कि वह भम्रित है। इसीलिए वे
इनके नेतृत्व में तोड़फोड़ करती है। भारत में ऐसी ही प्रवृत्तियों के चलते धर्म
की सत्ता भारत के संविधान से भी अधिक ताकतवर स्थिति में नजर आती है। धर्म के
मैनेजरों के ऐसे ही वर्चस्व के चलते बाबा साहब डा. अम्बेडकर भी धार्मिक सत्ता को
राजनैतिक सत्ता से अधिक ताकतवर मानते थे। पी के फिल्म में पुलिस का बार-बार यह
कहना कि तुम्हारे रिमोट कंट्रोल को भगवान ही दिला सकता है। यह भी किसी से छिपा
नहीं हैं कि लोकतंत्र के चारों स्तंभों से जुड़े शक्तिशाली अधिकतर व्यक्ति
धार्मिक मैनेजरों के यहां दस्तक देते हैं। इसी के मद्देनजर पी के पूरी फिल्म के
सभी धर्मों के पूजा स्थलों में मत्था टेकता नजर आता है।
अंत में जब वह शिव का अभिनय करने वाले व्यक्ति का पीछा
करते-करते तपस्वी जी के प्रवचन स्थल तक पहुंचता है और वहां अपना रिमोट देखता है
तो भारतीय धार्मिक परंपरा के अनुसार वह सारा श्रेय उस अभिनय करने वाले व्यक्ति
शिव को ही देता है। यह धार्मिकता का अनुठा उदाहरण है। इतना ही नहीं जो लोग शिव,
राम व कृष्ण आदि का किसी फिल्म या सीरियल में अभिनय करते तो उन्हें साष्टांग
प्रणाम करने वालों की कमी नहीं रहती। गौरतलब है कि जब रामनंद सागर द्वारा ‘रामायण’
का प्रसारण टी वी होता था तो टी पी पर धूप-अगरबत्ती लगाने वालों की कमी नहीं होती
थी। यह है सवाल आस्था का और धर्मभीरूता का भी। यह धर्मभीरूता समाज के अशिक्षित व
कमजोर वर्गों तक सीमित नहीं है बल्कि राजनेता, फिल्मी स्टार और बड़े-बड़े
पूजीपति भी इससे अछूते नहीं हैं। अति तो तब हो जाती है कि जब किसी भष्टाचार,
अपराध या अन्य असंभव जैसी प्रवृत्ति के संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायलय को
अपनी टिप्पणी में भगवान को शामिल कर कहना पड़ता है। ऐसी धर्मांधता के चलते ही ‘ओ
माई गॉड’ फिल्म में धर्म के दो ही काम बताए गए हैं। पहला-व्यक्ति को बेबस बनाना
और दूसरा व्यक्ति को आतंकवादी बनाना। मुझे लगता है कि पी के फिल्म धर्म और ईश्वर
के नाम पर व्यक्ति को बेबस और आतंकवादी बनाने से रोकती है। निस्संदेह यह फिल्म
समाज को सभ्य और समकालीन वैश्विक चुनौतियों से लड़ने व आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त
करती है। इसलिए इसका संदेश विचारणीय ही नहीं अनुकरणी भी है, ऐसा मेरा मानना है।
यह सुखद अनुभव की बात है कि माननीय प्रधानमंत्री जी ने
धार्मिक असहिष्णुता के संबध में 17.02.2015 को क्रिश्चयन मिशनरीज के एक
क्रायक्रर्म में अपने विचार करते हुए धार्मिक सोहार्द बिगाड़ने वालों के साथ सख्ती
से निपटने की बात ही नहीं कही बल्कि किसी को भी नहीं बख्शे जाने का आश्वासन
दिया। काश! ऐसा ठोस बयान पहले आ गया होता तो संभवत: न घर
वापसी की मुहिम चलती, न चार-चार बच्चे पैदा करने के फतवे जारी होते, न ही क्रिश्चयन
मिश्नरियों पर आक्रमण होते और न ही फिल्म पी के को लेकर इतना बवाल मचता और न
तोड़-फोड़ ही होती। इतना नहीं अमेरिकन राष्ट्रपति को हमारे ही देश में और हमारे
ही आतिथ्य के दौरान धार्मिक असहिष्णुता को लेकर टिप्पणी न करनी पड़ती और न ही
विश्वभर में भारत के खिलाफ को कोई गलत संदेश जाता। खैर... जो कुछ भी है, हर चीज
अपने समय पर ही होती है। मुझे लगता है कि धार्मिक असहिष्णुता के मुक्ति के लिए
हमें अपने अंदर धर्म, जाति, राज्य से ऊपर उठकर राष्ट्रीयता की भावना को विकसित
करना होगा। निष्कर्ष रूप में और ऐसी समस्याओं का एक सममानजनक समाधान के रूप में
मैं बाबा साहब अम्बेडकर की टिप्पणी को बेहद कारगर मानता हूं जो इस प्रकार है - मुझे
अच्छा नहीं लगता जब कुछ लोग कहते है कि हम पहले भारतीय हैं, बाद में हिंदू या
मुसलमान, मुझे यह स्वीकार नहीं है। धर्म, संस्कृति, भाषा आदि की
प्रतिस्पर्धी निष्ठा के रहते हुए भारतीयता के प्रति निष्ठा नहीं पनप सकती। मैं
चाहता हूं कि लोग पहले भी भारतीय हो और अंत तक भारतीय रहे, भारतीयता के अलावा कुछ नहीं।’ ऐसी भारतीयता के चलते न तो कोई पी के जैसी फिल्म बनाने की
आवश्यकता ही रह जाएगी और न ही इसका विरोध करने वालों की। ऐसे में न पी के को
फर्सटेटवाएगा और न ही अन्य किसी भी व्यक्ति के सामने धर्म और धर्म के मैनेजरों
की वजह फर्सटेटवाने की स्थिति ही पैदा होगी।
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