Wednesday 28 March 2012

क्रिकेट, ग्रेग चैपल और अम्‍बेडकरवाद

इस निबंध का शीर्षक थोड़ा अटपटा लग सकता है कि अम्‍बेडकरवाद का भला क्रिकेट व ग्रेग चैपल से क्‍या लेना-देना हो सकता है। लेकिन जो क्रिकेट के संबंध में ग्रेग चैपल ने कहा है, उसका संबंध भारतीय संस्‍कृति से है और भारतीय संस्‍कृति का संबंध अम्‍बेडकरवाद से है। दूसरे, ग्रेग चैपल भारतीय संस्‍कृति व समाज के संबंध में उसी प्रकार के प्रश्‍न उठा रहे हैं, जिस प्रकार के प्रश्‍न अम्‍बेडकरवादी चिंतन/दर्शन के बहुत पहले से अभिन्‍न अंग रहे हैं। इसलिए मुझे महसूस हुआ कि यह चिंतन/दर्शन सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्रों की तरह हार के क्रिकेट एपीसोड के संबंध में कितना प्रासंगिक हो सकता है, इस पर भी विचार किया जाए। विचारणीय है कि यदि अम्‍बेडकरवादी चिंतन/दर्शन को गंभीरता से लिया जाता तो आज ग्रेग चैपल को भारतीय संस्‍कृति के विषय में ऐसी टिप्पणी करने का साहस नहीं होता। गौरतलब है कि इस चिंतन/दर्शन को हल्‍के में लेने के लिए परंपरावादी/वर्णवादी समाज ही जिम्‍मेदार नहीं है बल्कि भारतीय संस्‍कृति का वारिस यानी आज का दलित समाज भी बराबर का जिम्‍मेदार है। आज दलित समाज द्वारा अम्‍बेडकरवादी व बुद्धवादी होने के बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं लेकिन ये दावे हकीकत से कितने दूर हैं, मौजूदा लेख में इस पर भी विचार किया जाना अनिवार्य महसूस हो रहा है।

8 मार्च 2012 के राष्‍ट्रीय सहारा अखबार में ‘‘चैपल ने उड़ाया भारतीय संस्‍कृति का मजाक’’ शीर्षक से समाचार छपा। सर्वविदित है कि ग्रेग चैपल भारतीय टीम के कोच रहे हैं। चैपल के विषय में कहा गया है कि उन्‍होंने न सिर्फ भारतीय क्रिकेट टीम बल्कि भारतीय संस्‍कृति को लेकर भी जहर उगला है। क्‍या सचमुच चैपल ने जहर उगला? इस प्रश्‍न के उत्तर को समझने के लिए पहले यह देखना पड़ेगा कि उन्‍होंने कहा क्‍या है। उन्‍होंने कहा है, “‘भारतीय अच्‍छे नेतृत्‍वकर्ता पैदा नहीं कर सकते क्‍योंकि भारतीय व्‍यवस्‍था में सभी फैसले माता-पिता, स्‍कूली शिक्षक और कोच करते हैं। भारतीय संस्‍कृति एकदम भिन्‍न है। यह टीम की संस्‍कृति नहीं है। उनके पास टीम के नेतृत्‍व की कमी है। छोटी उम्र में उनके माता-पिता सभी फैसले करते हैं। उनके स्‍कूली शिक्षक सभी फैसले लेते हैं और उनके कोच उनके फैसले लेते हैं।’’

मौजूदा टिप्‍पणी में ग्रेग चैपल दो शब्‍दों भारतीय व्‍यवस्‍था और भारतीय संस्‍कृतिपर विशेष जोर देते हैं। इन दो शब्‍दों को समझने के लिए हमें भारतीय व्‍यवस्‍था और भारतीय संस्कृति से जुड़े भारतीय समाज के ढांचे को समझना पड़ेगा। जाहिर है इसमें जातियां हैं, वर्ण है, सामाजिक ऊंच-नीच है, घृणा व द्वेष है, शोषण-उत्पीड़न है, भाई-भतीजावाद व बिरादरीवाद भी है। कहने की जरूरत नहीं इस ढांचे को तैयार करने में तथाकथित धर्म (विशेष रूप से हिन्‍दू धर्म) की केन्‍द्रीय भूमिका होती है। हिन्‍दू धर्म इस लिए कि भारत के मुस्लिम, सिख व इसाई धर्म में धर्मांतरित लगभग सभी व्‍यकित मूल रूप में हिन्‍दू ही रहे हैं। इसलिए हिन्‍दू धर्म के मौजूदा ढांचे के ईद-गिर्द प्रत्‍येक व्‍यक्ति के क्रियाकलाप परिक्रमा करते नजर आते हैं।

यह धर्म/जाति के आधार पर निर्मित अनेक प्रकार का सामाजिक विभाजन व स्‍तरीकरण कभी भी व्‍यक्तियों को टीम नहीं बनने देता। टीम यदि बनती हैं तो वे जाति/वर्ण/धर्म परिधि में परिक्रमा करने के लिए। इन परि परिधियों को तोड़ने वाली टीमें अपवाद स्‍वरूप बनती हैं। जाति/वर्ण/धर्म की परीधी में चक्‍कर काटने वाली टीमें आस्‍था, विश्‍वास व परंपरा के नाम पर व्‍यक्ति से उसका चिंतन व विवेक छीन लेती है। परिणाम स्‍वरूप, दुलीना, गोधरा, गोहाना जैसे अग्निकांड, लूटपाट व नरसंहार होते हैं। इन टीमों की स्थिति आंख पर पट्टी बंधे उस बैल जैसी हो जाती है जिसके पास धुरी (धर्म के ब्रह्मास्‍त्र यानी रूढि़वादी परंपरा, अंधविश्‍वास, आस्‍था आदि) के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने के अलावा कोई विकल्‍प नहीं बचता।

विवेकहीनता और अंधानुकरण की प्रवृत्ति पर प्रकाश डालते हुए हेबर्ड स्पेंसर टिप्‍पणी करते हैं - हिन्दू जीवन में धर्म उसके प्रत्येक क्षण को नियमित करता है। वह उसे आदेश देता है कि अपने जीवन काल में कैसा आचरण करे, तथा उसकी मृत्यु के उपरान्त उसके शरीर का क्या किया जाए। धर्म उसे यह बताता है कि स्त्री के साथ मिलने वाला सुख कब और कैसे प्राप्त करे। जब बच्चा पैदा हो जाए, कौन-कौन से धर्मानुष्ठान किए जाने हैं - उसका क्या नाम रखा जाए, उसके सिर के बाल कैसे काटे जाएं, उसको पहला भोजन कैसे कराया जाए, वह कौन सा व्यवसाय करे, किस स्त्री के साथ विवाह करे, यह बात उसे धर्म बताता है। वह किसके साथ भोजन करे, कौन सा अन्न खाए, कौन सी सब्जियां विधिवत हैं और कौन सी निसिद्ध, उसकी दिनचर्या कैसी हो, कितनी बार वह भोजन करे और कितनी बार प्रार्थना करे, धर्म इन सबका नियमन करता है। हिन्दू का कोई ऐसा कार्य नहीं, जिसका धर्म में अंतर्भाव न हो अथवा जिसके लिए धर्म का आदेश न हो। यह बहुत विचित्र प्रतीत होता है कि शिक्षित हिन्दू इस बात को अधिक महत्व देते, मानो यह कोई उपेक्षा की बात हो।’’

यहां व्‍यक्‍ति के पास अपने विवेक का इस्‍तेमाल करने, स्‍वतंत्र चिंतन करने व अपने निर्णय/जिम्‍मेदारी लेने का कोई विकल्‍प ही कहां बचता है। इसलिए चैपल आगे कहते हैं, “भारत में इस तरह की संस्‍कृति है कि अगर कोई अपना सिर उठाकर बात करता है तो कोई आप पर बरस पड़ेगा। इसलिए वे अपना सिर नीचा करके सीखते हैं और जिम्‍मेदारी नहीं लेते हैं।वास्‍तव यह बात निरी क्रिकेट तक सीमित नहीं है। यह हमारे आचार-विचार व क्रियाकलापों पर सवाल उठाती है जिससे व्‍यक्ति का व्‍यक्तित्‍व व समाज की संस्‍कृति बनती है। किसी के बरस पड़ने के डरया धर्म के डरया समाज के ठेकेदारों के डरको समझने के लिए पं. जवाहरलाल नेहरू की इस टिप्‍पणी को देखना पड़ेगा,‘‘यद्यपि मैने अतीत की परंपराओं और रीति-रिवाजों की उपेक्षा की है, और मैं चिंतित हूं कि भारत को स्वयं इन बेडि़यों को तोड़ देना चाहिए जो उसे बांधती हैं, बंदी बनाती हैं और देश को विभाजित करती हैं और विशाल जनसमूह का दलन करती हैं और उनके शरीर और आत्मा के स्वतंत्र विकास को रोकती हैं, यद्यपि मैं यह सब जानता हूं फिर भी मेरी इच्छा नहीं है कि मैं स्ययं को अतीत से पूर्ण रूप से अलग कर लूं। मुझे गर्व है उस विरासत पर जो सदा से रही है और आज भी हमारी है और मैं उत्सुक हूं कि मैं भी दूसरों की तरह एक कड़ी हूँ, उस श्रंखला (जंजीर) को जो पीछे इतिहास के उदय से दूर अतीत तक जाती है। यह जंजीर मैं नहीं तोड़ूंगा, मैं इसे सुरक्षित रखूंगा और प्रेरणा प्राप्त करूंगा।’’

पश्चिमी सभ्‍यता में पले-बढ़े व आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से सम्‍पन्‍न और देश के प्रधानमंत्री के रूप में जब पंडित नेहरू जैसा व्‍यक्ति देश को विभाजित करने वाली, जन समूह को बंदी बनाने व दलन करने वाली व शरीर व आत्‍मा के स्वतंत्र विकास को रोकने वाली अमानवीय/बर्बर परंपराओं को तोड़ने से डरे या अपनी जिम्‍मेदारियों से किनारा करें तो भारतीय टीम के महेंन्‍द्र सिंह धोनी की क्‍या बिसात कि वह सच को सच कहें। अपनी टीम की चयन प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाएं, रोटेशन पॉलिसी लागू करें या टीम के लिए बोझ बन रहें खिलाड़ियों के विषय में कोई निर्णय लेने का साहस करें क्‍योंकि धोनी के निर्णयों से प्रभावित होने वाले सभी खिलाडि़यों के अपने-अपने सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक क्षेत्रों को प्रभावित करने वाले कई आका हैं। कठोर निर्णय यानी केप्‍टन के रूप में जिम्‍मेदारी निभाने/लेने का मतलब अपने पैर में कुल्‍हाड़ी मारना है। यह मामला क्रिकेट तक सीमित नहीं है। यह इंसान के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, बौद्धिक सभी क्षेत्रों पर कमोबेश समान रूप में लागू होता है। चैपल द्वारा भारतीय व्‍यवस्‍था और भारतीय संस्‍कृतिशब्‍द का प्रयोग स्‍पष्‍ट रूप से यही संकेत देता है कि गड़बड़ हमारी व्‍यवस्‍था संस्‍कृति में है जो व्‍यक्ति के व्‍यक्तित्‍व का निर्माण करने में अहम भूमिका अदा करती है। यही हमारे आचरण में रिफ्लैक्ट होता है।

ग्रेग चैपल इस बात का भी खुलासा करने की कौ‍शिश करते हैं कि भारतीय व्‍यवस्‍था व संस्‍कृति में यह प्रवृत्ति कैसे आई। क्रिकइन्‍फों के अनुसार चैपल ने अपनी किताब फायर्स फोकसके प्रचार कार्यक्रम के दौरान कहा, ‘‘पोम्‍स (अंग्रेज) ने वास्‍तव में उन्‍हें सिर नीचा करना सिखाया था। यदि किसी को जिम्‍मेदार समझा जाता था तो उसे सजा मिलती थी। इसलिए भारतीयों ने जिम्‍मेदारी से बचना सीखा। इसलिए किसी भी फैसले की जिम्‍मेदारी लेने से पहले वे उससे बचने का प्राथमिकता देते हैं।’’ मौजूदा टिप्‍पणी चैपल के इरादे और अधिक साफ कर देती है कि चैपल जो कुछ भी कह रहे हैं, वह क्रिकेट पर कम और भारतीय व्यवस्‍था व संस्‍कृति पर अधिक प्रहार करती है। यह चैपल की शरारत है, भारत के प्रति जहर उगलना है, पूर्वाग्रह है या कुछ और? लेकिन एक बात तो तय है कि यह गंभीर मसला है और इस पर विचार भी गंभीरता पूर्वक होना चाहिए।

जिस सिर नीचा करने व जिम्‍मेदारी से बचने की प्रवृत्ति की बात ग्रेग चेपल कर रहे हैं, वह पहले से धर्म व हिन्‍दूवादी संस्‍कृति के चलते पहले से मौजूद रही है। इस संस्‍कृति के चलते व्‍यक्ति के पास गुलामी के अतिरिक्‍त सीखने के लिए बचता ही कितना है। भारत में जीना-मरना, हंसना-रोना, जीतना-हारना यानी व्‍यक्ति के जीवन का प्रत्‍येक क्रियाकलाप दो ऐजेंसियां करती हैं। एक भाग्‍य और दूसरा भगवान। इसलिए किसी भी क्रियाकलाप/स्थिति के लिए कोई भी व्यक्ति जिम्‍मेदार नहीं है क्‍योकिं व्‍यक्ति कुछ करता ही नहीं है। यहां जो कुछ होता है, वह भाग्‍य और भगवान के अनुसार होता है। इसके बाद यदि कुछ बच जाता है तो वह पूर्व जन्‍म के फल के कारण होता है। फिर व्‍यक्ति के‍ जिम्‍मेदारी लेने का यहां सवाल ही कहां पैदा होता है। जिम्‍मेदारी न लेने व सिर नीचा करने की प्रवृत्ति का श्रेय अंग्रेजों को नहीं, हिन्‍दूवादी परंपरा व हिन्‍दूवादी संस्‍कृति को जाता है। इसमें मामले में नफे-नुकसान का मामला अलग है इसलिए इसपर बात भी अलग ही होनी चाहिए।

जहां तक टीम का सवाल है, यदि टीम को व्‍यापक संदर्भ में देखें तो इस अर्थ एकता से है, सामुहिकता से है और सामूहिक सहभागिता से भी है। यह सामूहिकता व एकता ही समाज व राष्‍ट के अस्तित्‍व के लिए अनिवार्य होनी चाहिए। लेकिन भारत में ऐसा नहीं है, इसके अभाव में ही भारत को बार-बार पराजय का मुंह देखना पड़ा और यह गुलामी का शिकार हुआ। ‘‘हमारा सारा देश कभी हमले के खिलाफ खड़ा नहीं हो सका। हमेशा समाज के एक छोटे से वर्ग ने उनका मुकाबला किया और जब वह पराजित हो गया तो सारा देश विजेता के कदमों में झुक गया। यह मुख्यतः हिन्दुओं की जाति प्रथा के कारण हुआ। युद्ध में यूरोप का उदाहरण देते हुए डा. अम्बेडकर आगे बताते है कि वहां युद्ध में जो सैनिक मरते थे उनकी जगह तुरंत नए सैनिक आ जाते थे। वहां पूरा देश लड़ता था, समाज का एक महज हिस्सा नहीं। भारत में जब क्षत्रिय हार जाते थे तो उनकी जगह नए सैनिक नहीं आते थे, सार्वजनिक सैनिक भर्ती नहीं होती थी क्योंकि चातुर्वण्य की घृणित व्यवस्था थी कि युद्ध में केवल क्षत्रिय लड़ेंगे। इसी लिए देश बार-बार गुलाम हुआ।’’ (डा. अम्‍बेडकर) भले ही क्रिकेट के साथ प्रत्‍यक्ष रूप में ऐसा नहीं है लेकिन परोक्ष रूप में यह प्रवृत्ति हमारे निर्णयों को निर्णायक स्‍तर तक प्रभावित करता है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता।

जिस विभाजन की बात डा. अम्‍बेडकर कर रहे हैं उसके लिए जिम्‍मेदार धर्म का संरक्षक यानी पुरोहित समाज व उसका तथा‍कथित धार्मिक साहित्‍य ही रहा है। इनके अंधानुकरण के कारण कभी भी एकता व सामूहिकता की प्रवृत्ति कभी विकसित ही नहीं हुई। व्‍यक्ति व समाज सिर्फ जातियों से जाना जाता रहा है। जातीय पहचान को नाम के साथ चस्‍पा कर दिया गया। फलत: समाज हमेशा विकृत रहा और जीवन के हर क्षेत्र में पिछड़ता चला गया। इस सामाजिक विकृति से उबरने के लिए ‘‘किसी आदर्श समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए कि जिससे कोई भी व्‍यक्ति वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचारित हो सकें। ऐसे समाज के बहुआयामी हितों में सबका भाग होना चाहिए और सबको उसकी रक्षा के लिए सजग रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में अबाध संम्‍पर्क के अनेक साधन और अवसर उपलब्‍ध रहना चाहिए...इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है। लोकतंत्र आज केवल पद्धति ही नहीं, मूलत: सामाजिक दिनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान प्रदान का नाम है, जिसमें यह आवश्‍यक है कि अपने लोगों के प्रति श्रद्धा और सम्‍मान का भाव हो।’’(डा. अम्‍बेडकर)

डा. अम्बेडकर इस लोकतंत्र जिसे सामाजिक दिनचर्या की रीति व अनुभवों का आदान-प्रदान का साधन व लोगों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का प्रतीक मानते हैं, वह अपनी जिम्‍मेदारी ठीक से नहीं निभा रहा है। संभवत: डा.अम्‍बेडकर समाज की गतिशीलता के संदर्भ में राजनीति को संदेह की नजर से देखते हैं। इसलिए टिप्‍पणी करते हैं-‘‘हमारे देश के प्रजातंत्र ने अपनी बुद्धि का उपयोग करना स्‍थगित कर दिया है। प्रजातंत्र में सत्तारूढ दल के विचार और कार्यों की पूरी जांच पड़ताल होनी चाहिए और चिकित्‍सा भी। भारत को अच्‍छे अधिनायकवाद की आवश्‍यकता है।’’ यहां बाबा साहब अधिनायकवाद की बात करते हैं। यह अधिनायकवाद जनता का अधिनायकवाद है जो राजनीति को नियंत्रित करे या राजनीतिक सत्ता का अधिनायकवाद है जो देश व समाज को गतिशील बनाने में अहम भूमिका अदा कर सके। संभवत: इस गतिशीलता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा तक पुरोहितवाद व धार्मिक कर्मकांड है।

इस हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता कि पूरा पुरोहितवाद व धार्मिक कर्मकांड करोड़ों भगवानों व देवी-देवताओं के दम पर फल-फूल रहा है। अनेक संदर्भों में इन्‍हें ही माता-पिता, गुरु, बंधु-बांधव मानकर चला जाता है या जो कुछ भी माता-पिता व शिक्षक बताते यह समझाते हैं उनपर धार्मिक साहित्‍य और देवी-देवताओं और भगवानों की छाप ही अक्‍सर होती है। इसलिए जो कुछ भी पुरोहितवाद के फलने-फूलने के लिए रचा गया है उसी का अंधानुकरण किया जाता है। यह अंधानुकरण की प्रवृति भारतीय समाज की व्‍यस्‍था व संस्‍कृति की निर्धारक शक्ति जैसी बनकर रह गई है। चैपल भारतीय व्‍यवस्‍था व संस्‍कृति के इस अंधानुकरण को खामी के रूप में देखते हुए क्रिकेट में हार का ठींकरा संस्‍कृति और व्‍यवस्‍था पर फोड़ते हैं। डा; अम्‍बेडकर इसके विकल्‍प के रूप में पहले ही बता चुके हैं-‘‘यदि अपनी श्रद्धा और भक्ति के बल पर हम किसी को देवताओं के सिंहासनों पर आरूढ़ करते हैं तो उससे समाज का पतन ही होता है। दुनिया में कोई भी देवी गुण लेकर पैदा नहीं होता। स्‍वयं उसके प्रयत्‍नों से उसकी उन्‍नति होती है या अवनति।’’

यह श्रद्धा व भक्ति सिर्फ हिन्‍दू देवी-देवताओं तक सीमित नहीं है यह इस देश के मूलनिवासियों यानी आज के दलित समाज पर भी लागू होती है। इन्‍होंने खुद डा. अम्‍बेडकर व तथागत बुद्ध को उसी श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है जहां पर परंपरावादी साहित्‍य और समाज ने अपने देवी-देवताओं व महापुरुषों को स्‍थापित किया हुआ था। ये लोग बुद्ध और अम्‍बेडकर का अंधानुकरण कर अपनी ऊर्जा का अपव्‍यय कर रहे हैं। अपने आपको सच्‍चा अम्‍बेडकरवादी व बुद्धवादी कहने सिद्ध करने के लिए कुछ लोगों ने बुद्ध वचन और अम्‍बेडकर के वक्‍तव्‍यों को कंठस्‍थ कर उनका जाप जैसा करना शुरु कर दिया है। जबकि बुद्ध और अम्‍बेडकर दोनों ही पुस्‍तक व व्‍यक्ति की गुलामी के घोर विरोधी थे। लेकिन उनकी विरासत के ठकेदार इनसे बाहर किसी विचार को स्‍वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। यह गंभीर चिंता की बात है।

डा. अम्‍बेडकर सदैव विचारों की गतिशीलता जिसके आधार पर समाज गतिशील होता है कि वकालत करते थे। उनके चिंतन के केन्‍द्र में व्‍यक्ति है, भाग्‍य, भगवान व पूर्वजन्‍म के कार्य जैसा कुछ नहीं है। इसी आधार पर वे व्‍यक्ति की उन्‍नति व अवनति के लिए व्यक्ति के अपने क्रियाकलापों को जिम्‍मेदार मानते हैं। ये क्रियाकलाप ही व्‍यक्ति की उसके कार्यों के प्रति जिम्‍मेदारी निर्धारित करते हैं। इस गतिशीलता को बनाए रखने के लिए डा. अम्‍बेडकर समाज को आगाह करते है-‘‘मेरे मरणोंपरांत मेरे विचार या संप्रदाय की संस्‍था मत बनाइए। जो समाज या संस्‍था काल और समय के अनुसार अपने विचारों को नहीं बदलती या बदलने का तैयार नहीं होती, वह जीवन के संघर्ष में टिक नहीं सकती।’’

डा. अम्‍बेडकर समाज व्‍यवस्‍था व संस्‍कृति के विकास के लिए समाज की गतिशीलता व व्‍यक्ति के क्रियाकलापों तक ही नहीं रुके इससे आगे बढ़कर वह व्‍यक्ति व समाज की प्रयोगात्‍मकता की अनिवार्यता को मार्क्‍सवाद व संमाजवाद के संदर्भ में कुछ इस प्रकार बयां करते हैं-‘‘समाज को हमेशा ही प्रयोगात्‍मक स्थिति में होना चाहिए। मार्क्‍स ने निस्‍संदेह पिछड़े हुए वर्ग के हितों का समाधान करने की कौशिश की है। परंतु वह एक दिशा मात्र है, न कि हर सामाजिक रोग का कोई अबोध अस्‍त्र और न ही अपरिवर्तनीय देवी मंत्र है।’’ यह प्रयोगात्‍मक स्थिति हमें स्‍पष्‍ट संकेत देती है कि कुछ भी अंतिम नहीं होता। इसलिए व्‍यक्ति को निरंतर प्रयोग व चिंतन-मनन करते रहना चाहिए। किसी के भी विचार चाहे वे बुद्ध के हों, डा. अम्‍बेडकर के हों या अन्‍य किसी भी बड़े से बड़े महापुरूष व कितने ही बड़े व लोकप्रिय ग्रंथ के क्‍यूं न हों, को प्रयोगात्‍मक प्रक्रिया में बनाए रखना चाहिए।

गतिशीलता व प्रयोगात्मकता को बनाए रखने के लिए बाबा साहब दो टिप्पणियों पर विचार किया जा सकता है। एक- स्‍वतंत्रता को किसी महान व्‍यक्ति के आगे समर्पित नहीं करना चाहिए। भक्ति या वीर पूजा पतन और तानाशाही का मार्ग है। दो-हमारी उन्‍नति तभी हो सकती है, यदि हम अपने में स्‍वाभिमान की भावना उत्‍पन्‍न करें और हम स्‍वयं को पहचानें। इन टिप्‍पणियों से दो बाते स्‍पष्‍ट होती है कि हमें किसी भी व्‍यक्ति व ग्रंथ/धर्मग्रंथ का गुलाम नहीं बनना है और बाबा साहब व बुद्ध भी इस परिधि से बाहर नहीं हैं। दूसरी बात यह है कि हमें स्‍वयं को पहचानने व स्‍वाभिमान के मामले में समझौता नहीं करना है।

बड़ी विनम्रता से कहना चाहूंगा कि हमने अपनी स्‍वतंत्रता को अपने नायकों व उनके विचारों तक सीमित कर दिया है या उनका गुलाम बना लिया है। हमें इनका जाप करने की बजाय इनसे ऊर्जा लेनी चाहिए थी। उनके चिंतन-दर्शन को समसामयिक परिस्थितियों के अनुरूप गतिशील व प्रयोगत्‍मक स्वरूप प्रदान करने में हमसे भूल हुई और निरंतर हो रही है। दूसरी भूल हम अपनी अस्मिता के संदर्भ में कर रहे हैं। हम जातियों को मजबूत करने और दलितशब्‍द में अपनी अस्मिता तलाश रहे हैं। इन दोनो स्थितियों में स्‍वाभिमान जैसा कुछ भी नहीं है। हम एक मत हैं कि जातियां ही हमारे शोषण-उत्‍पीड़न का स्‍त्रोत हैं। यही हमारे दलन के लिए परिस्थितियां पैदा करती हैं।

दूसरे, हमारे सारे आन्‍दोलन दलन व शोषण-उत्‍पीडंन से मुक्ति के लिए है। जब हम दलन से मुक्ति चाहिते हैं तो दलितहमारी अस्मिता कैसे हो सकता है। बाबा साहब की मानें तो ‘‘अन्‍याय तब तक समाप्‍त नहीं हो सकता, जब तक कि पीडि़त व्‍यक्ति स्‍वयं अपने प्रयत्‍न एवं कार्यवाही द्वारा इसे समाप्‍त नहीं करता। जब तक किसी दीन का अंतकरण उसकी अपनी दासता के विरुद्ध घृणा से भरकर विद्रोह नहीं करता, उसकी मुक्ति की आशा नहीं की जा सकती।’’ हमारा विद्रोह दलन करने वाली परिस्थितियों से है। फिर हम दलित में अस्मिता क्‍यूं ढूंढते है, क्‍यूं दलित संस्‍कृति बनाने की बात करते है। ऐसी सोच हिन्‍दूवादी सोच की तरह गतिहीन व प्रयोगात्‍मकता के विरूद्ध है।

यह वही विवेकहीन व अंधविश्‍वासी सोच है जिसको आधार बनाकर ग्रेग चैपल क्रिकेट की हार ही नहीं भारतीय संस्‍कृति पर सवाल खड़े करता है। जातियों व दलितपन को महिमामंडित करके क्‍या हम अपनी गुलामी का आत्‍मसात नहीं कर रहे हैं? ऐसा कार्य अपनी जिम्‍मेदारी से पलायन करना है। ग्रेग चैपल की टिप्‍पणी जिम्‍मेदारी से पलायन व गुलामी की संस्‍कृति पर तो स्‍टीक बैठती है लेकिन साथ ही जाति व दलित की वकालत करने वालों पर भी स्‍टीक बैठती है। क्‍या भौतिकवादी हडप्‍पा संस्‍कृति के संवाहक ये आजीवक/मूलनिवासी यानी आज का दलित समाज भी उसी संस्‍कृति के शिकार बना रहना चा‍हता है जिसका शिकार हिन्‍दूवादी समाज है, जिसकी आड़ में ग्रेग चैपल भारतीय संस्‍कृति पर निशाला साध रहे हैं? इस समस्‍या पर विचार करने की जरूरत परंपरावादी समाज व गैर-परंपरावादी समाज दोनों को है। तभी समाज में गतिशीलता व प्रयोगात्‍मकता की प्रवृत्ति विकसित होगी और समाज का प्रत्‍येक नागरिक जिम्‍मेदार व सृजनशील नागरिक होगा।

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