moolniwasi (aajivak)
Monday 22 January 2018
अभी-अभी आने वाली चारों नई पुस्तकों से आपको रूबरू कराने के लिए
आइए मित्रों, मैं अभी-अभी आने वाली चारों नई पुस्तकों से आपको रूबरू करा दूं ।
1-"मुख्यधारा के आइने में अम्बेडकरवादी साहित्य" ,
2-"अम्बेडकरवाद : एक समसामयिक विमर्श"
3-"इक्कीसवीं सदी में अस्मिता संघर्ष" और
4-"इन्ट्यूशन" (कहानी संग्रह) ।
कुल मिलाकर अब मेरे पुस्तक कोश में 'ग्यारह' पुस्तक आलोचना की, 'दो' काव्य संग्रह और 'एक' कहानी संग्रह शामिल हो गए हैं । इसके साथ मैं अपने लेखन की प्रथम पारी की समाप्ति की घोषणा पहले ही कर चुका हूं । अपनी दूसरी पारी में इस पारी से हटकर कुछ अलग करने की मंशा है ।उम्मीद करता हूं कि जितना प्यार और सम्मान मुझे अपने मित्रों व पाठकों से अपनी पहली पारी के दौरान मिला उससे अधिक दूसरी पारी में मिलेगा। इसे दूसरे शब्दों में कहूं तो मैं इसके लिए पहले से अधिक समर्पित रहूंगा और निश्चित रूप से पहले से बेहतर दूंगा । अपने इसी संकल्प के साथ मैं अपनी चारों पुस्तकें एक साथ अपने मित्रों व पाठकों को समर्पित कर रहा हूं। यह जानकारी व संकल्प आप सभी से साझा करते हुए मुझे अपार खुशी की अनुभूति हो रही है और संभवतः आप सभी को भी....
1-"मुख्यधारा के आइने में अम्बेडकरवादी साहित्य" ,
2-"अम्बेडकरवाद : एक समसामयिक विमर्श"
3-"इक्कीसवीं सदी में अस्मिता संघर्ष" और
4-"इन्ट्यूशन" (कहानी संग्रह) ।
कुल मिलाकर अब मेरे पुस्तक कोश में 'ग्यारह' पुस्तक आलोचना की, 'दो' काव्य संग्रह और 'एक' कहानी संग्रह शामिल हो गए हैं । इसके साथ मैं अपने लेखन की प्रथम पारी की समाप्ति की घोषणा पहले ही कर चुका हूं । अपनी दूसरी पारी में इस पारी से हटकर कुछ अलग करने की मंशा है ।उम्मीद करता हूं कि जितना प्यार और सम्मान मुझे अपने मित्रों व पाठकों से अपनी पहली पारी के दौरान मिला उससे अधिक दूसरी पारी में मिलेगा। इसे दूसरे शब्दों में कहूं तो मैं इसके लिए पहले से अधिक समर्पित रहूंगा और निश्चित रूप से पहले से बेहतर दूंगा । अपने इसी संकल्प के साथ मैं अपनी चारों पुस्तकें एक साथ अपने मित्रों व पाठकों को समर्पित कर रहा हूं। यह जानकारी व संकल्प आप सभी से साझा करते हुए मुझे अपार खुशी की अनुभूति हो रही है और संभवतः आप सभी को भी....
Monday 14 September 2015
महाभारत : नारी उत्पीड़न का धार्मिक संस्करण
ईश कुमार
गंगानिया
इससे पहले कि हम महाभारत के स्त्री पात्रों पर विचार करें, महाभारत
विश्वसनीयता पर विचार करना जरूरी महसूस हो रहा है। क्योंकि महाभारत के मूल्यांकन
से स्त्री जीवन की जो तस्वीर उभर कर आएगी,
वही महाभारत में मौजूद स्त्री पात्रों की विश्वसनीयता व प्रासंगिकता
का मापदंड होगी। महाभारत की विषयवस्तु के महत्व को समझने के लिए प्रकाशकीय वक्तव्य का उल्लेख किया जा सकता है। इसके अनुसार-‘इसे
शास्त्रों में पंचम वेद के रूप में अभिहित किया गया है। यह भारत का सच्चा एवं वृहत्
इतिहास तो है ही, जैसा
कि इसके नाम से ही व्यक्त होता है, साथ ही इसमें धर्म,
ज्ञान, वैराग्य, भक्ति,
योग, नीति, सदाचार,
अध्यात्म आदि का अत्यंत विशद एवं सारगर्भित विवेचन है। इसमें एक लाख
श्लोक हैं इसलिए इसे ‘शतसाहस्त्री संहिता’ के नाम से भी पुकारा जाता है।’1
मौजूदा संदर्भ में महाभारत की विषयवस्तु, इसके रचयिता, इसकी रचना का उद्देश्य और यह कैसे अपने मौजूदा रूप में अस्तित्व में आया,
इस पर भी विचार करना जरूरी है। इस संदर्भ में आगे कहा गया है-‘उन्होंने
(वेद व्यास ने) तपस्या और ब्रह्मचर्य की शक्ति से वेदों का विभाजन करके इस ग्रंथ का निर्माण
किया और सोचा कि इसे शिष्यों को कैसे पढ़ाऊं ?
भगवान व्यास का यह विचार जानकर उनकी प्रसन्नता और लोकहित के लिए ब्रह्माजी
उनके पास आए।...व्यास कहते हैं, ‘भगवन!
मैंने एक श्रेष्ठ काव्य की रचना की है। इसमें वैदिक और लौकिक सभी विषय
हैं। मैंने वेदांग सहित उपनिषद्, वेदों का क्रिया विस्तार,
इतिहास, पुराण, भूत,
भविष्यत और वर्तमान के वृतांत, बुढ़ापा,
मृत्यु, भय, व्याधि आदि
भाव-अभाव का निर्णय आश्रम और वर्णों का धर्म, पुराणों का सार, तपस्या, ब्रह्मचर्य,
पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य,
नक्षत्र और युगों का वर्णन, उनका परिणाम,
ऋग्वेद, युजर्वेद, सामवेद,
अथर्वेद, अध्यात्म, न्याय,
शिक्षा, चिकित्सा, दान,
पाशुपत धर्म, देवता और मनुष्यों की उत्पत्ति,
पवित्र तीर्थ, पवित्र देश, नदी, पर्वत, वन, समुद्र, पूर्वकल्प, दिव्य नगर,
युद्ध-कौशल, विविध भाषा,
विविध जाति, लोकव्यवहार और सब में व्याप्त परमात्मा
का भी वर्णन किया है।’2
इस टिप्पणी से साफ हो जाता है कि महाभारत में उस सब कुछ को समाहित करने
की कोशिश की गई है, जिसका अस्तित्व इस लौकिक व पारलौकिक जगत
से है, या हो सकता है।
महाभारत के संदर्भ में इसके लिखे जाने की अजीबो-गरीब प्रक्रिया का उल्लेख करना भी जरूरी
महसूस हो रहा है। बह्माजी ने इसके लिखने के लिए गणेश का नाम सुझाया और व्यास के स्मरण
करने पर वे उपस्थित हो गए और व्यास जी ने उनसे कहा-‘भगवन
मैंने मन ही मन महाभारत की रचना की है।,
मैं बोलता चलता हूं, आप उसे लिखतें जाइए। गणेश
जी ने कहा, ‘यदि मेरी कलम एक क्षण के लिए भी न रुके तो मैं लिखने
का काम कर सकता हूं।’ व्यास जी ने कहा, ‘ठीक
है, किंतु आप बिन समझे न लिखियेगा।...गणेश जी जब एक क्षण तक उन श्लोकों के अर्थ का विचार करते थे उतने ही में महर्षि
व्यास दूसरे बहुत से श्लोकों की रचना कर डालते थे।’3 पाठकों के लिए यह विचार करने योग्य
विषय है कि यह एक क्षण कितनी लम्बी अवधि का था कि इसमें गणेश श्लोकों के अर्थ पर विचार
करते और इसी क्षण के दौरान व्यास जी बहुत से श्लोकों की रचना कर डालते थे। विश्वसनीयता
की कसौटी पर यह पाठकों को कितना खरा महसूस होता है और कितना नहीं, इसका पता पाठक स्वयं और सहज ही लगा सकते हैं। इसलिए इस बिंदु पर मुझे टिप्पणी
करने की आवश्यकता नहीं है।
अंतत:
इसके महत्व, उपयोगिता व इसे महाभारत क्यूं कहा
जाता है, का उल्लेख करने के उपरांत महाभारत से वेद की तुलना
के संबंध में क्या कहा गया है, यह जानना भी बड़ा दिलचस्प है-‘देवताओं
ने महाभारत को वेदों के साथ रखकर तराजू पर तौला है। उस समय चारों वेदों से इसकी महत्ता
अधिक सिद्ध हुई है। महत्ता और भगवत्ता के कारण ही इसे महाभारत कहते हैं।’4 अर्थात यह महत्ता की दृष्टि से चारों
वेदों से अधिक महत्वपूर्ण है। इस कथन की रोशनी में देखा जाए तो महाभारत के मूल्यांकन
से प्राप्त निष्कर्षों को एक प्रकार से वेदों की विश्वसनीयता, उपयोगिता व प्रासंगिता की कसौटी माना जा सकता है। जितने विश्वसनीय,
जनहितकारी और अनुकरणीय महाभारत के निष्कर्ष होंगे उतने ही विश्वसनीय,
जनहितकारी और अनुकरणीय वेदों को माना जाना चाहिए।
जब हम महाभारत का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि
महाभारत में स्त्री इंसान नहीं बल्कि इस्तेमाल की कोई वस्तु है। उसे पुरुष के
सैक्स की पूर्ति या फिर बच्चे पैदा करने का साधन मात्र माना जाता था। इस कड़ी
में, मुझे लगता है कि महाभारत में स्त्री की स्थिति को समझने की शुरुआत ऋषियों से
की जानी चाहिए क्योंकि आज के तथाकथित ऋषि-मुनि, साधु-संत व विभिन्न प्रकार के
संप्रदाय व डेरों के स्वामी भी स्त्री संबंधों को लेकर महाभारत की ही परंपरा का
निर्वाह करते हैं और स्त्री के शोषण-उत्पीड़न की वजह से जेलों की शोभा बढ़ा रहे
हैं। मौजूदा विश्लेषण संभवत: महिलाओं व समाज को तथाकथित धर्म गुरुओं के समाज व स्त्री
संबंधों के पुनर्मूल्यांकन का मार्ग प्रशस्त करे और इंसानियत कलंकित होने से बच
सके।
सामान्यत:
ऋषि होने का तात्पर्य यह माना जाता है कि सांसारिक मोह, काम, क्रोध, लोभ आदि से मुक्त
व्यक्ति। वह स्वयं के आत्मिक/आध्यात्मिक उत्थान या संसार
के कल्याण के लिए समर्पित रहता है, जिसमें उसका निजी कुछ भी
नहीं होता। लेकिन पूरी महाभारत में ‘ऋषि’ सांसारिक व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक काम-वासना का शिकार नजर आता है और
उसका क्रोध और अंहकार ऐसा लगता है जैसे उसके पहुंचे हुए ऋषि होने का पैमाना हो। जितना
बड़ा तथाकथित ऋषि होगा, उतना
ही बड़ा उसके अहंकार व श्राप देने का पैमाना होगा। इस संभावना से पूरी तरह इंकार नहीं
किया जा सकता कि ऋषियों के अहंकार और श्राप से बचने के लिए ही राजा अपनी पुत्रियों
यानी राजकुमारियों को विवाह या शारीरिक भोग के लिए ऋषियों को दे देते थे। राजकुमारियों
का ऋषियों को उनके शारीरिक भोग के लिए दिया जाना एक और प्रश्न खड़ा करता है कि राजा
अपनी पुत्रियों की भावनाओं को कोई तरजीह ही नहीं देते थे वरना राजकुमारियों को ऋषियों
के लिए भोग के लिए दिए जाने की अपेक्षा ऐसे ऋषियों को सार्वजनिक तौर
पर मृत्यु दण्ड और यातनाओं की परंपरा का विस्तार होना चाहिए था। यदि ऐसा होता तो
आज इक्कीसवीं सदी में किसी आशाराम बापू या नारायण साई जैसों को नाबालिक लड़की के यौन
शोषण के लिए गिरफ्तार करने के लिए जोधपुर पुलिस व पूरे देश की जनता को आन्दोलित नहीं
होना पड़ता।
पूरी महाभारत में यह बीमारी देखने को मिलती है कि
एक ओर तो व्यक्ति ऋषि है और दूसरी ओर वह कई-कई पत्नीयों का भोग करता है, खूब बच्चे पैदा करता है
और फिर भी वह ऋषि बना रहता है। महाभारत में ऐसे भी बहुत से किस्से हैं जहां ऋषि बिना
विवाह के ही राजकुमारियों से संतान उत्पन्न करते थे। ऋषियों और राजकुमारियों के संबंध
में एक बात और उल्लेखनीय है कि ये राजाओं की कन्याओं यानी राजकुमारियों से विवाह के
लिए लालायित होते थे और अजीबो-गरीब बात यह भी है कि राजा भी इन
तथाकथित ऋषियों को अपनी पुत्रियों को भोग के लिए सोंप देने में (इक्का-दुक्का अपवाद को छोड़कर) संकोच करते नहीं दिखते। कहां तपस्या व सीधा-सीधा सांसारिक
ऐशो-आराम से दूर जंगलों में रहने वाला तथाकथित ऋषि और कहां राजकुमारियों
का सुख-सुविधाओं व विलासिता भरा जीवन। दोनों की सोचने समझने की
दुनिया एकदम अलग यानी दोनों में जमीन और आसमान का अंतर। जहां तक उम्र का सवाल है ऋषियों
की उम्र और राजकुमारियों की उम्र के तालमेल को कहीं भी प्राथमिकता नहीं दी जाती थी।
फिर दोनों की विपरीत जीवन स्थितियों के चलते इनके दाम्पत्य के संबंध में भी मुझे
कोई तालमेल नजर नहीं आता। यह स्थिति मुझे ऐसी प्रतीत होती है जैसी किसी कसाई के हाथों
किसी निरीह पशु को सौंप देने की हो सकती है। इस स्थिति की कल्पना मात्र से ही अजीब
प्रकार की पीड़ा की अनुभूति होती है, जिसे इस स्थिति से रोज प्रत्येक
क्षण गुजरना पड़ता होगा, उसके उत्पीड़न को बयां करने के लिए
मेरे पास शब्द नहीं हैं।
उपरोक्त प्रवृत्तियों के संदर्भ स्त्री की
स्थिति को परखने की कोशिश करें तो पाते हैं कि महाभारत में कौरवों व पांडवों के
अस्तित्व में आने से बहुत पहले जरत्कारु ऋषि और आस्तीक के जन्म की कहानी से स्त्री
की गुलामी, बेबसी व उत्पीड़न की शुरुआत
होती है। यहां जरत्कारु बूढ़ा ब्रह्मचारी, तपस्वी व वेदों का
ज्ञाता है। उसके पूर्वज नीचे मुंह किए कहीं लटके हैं, उन्हें बचाने का एक ही विकल्प
है कि उनका वंशज यानी जरत्कारु संतान उत्पन्न करे। लेकिन बूढ़ा और जर्जर होने के
कारण उसे कोई अपनी कन्या देने को तैयार नहीं था। इसलिए वह जंगल में जाकर तीन बार बोलते
हैं, ‘मैं कन्या की याचना करता हूं। यहां जो भी चर-अचर अथवा गुप्त या प्रकट प्राणी हैं,
वे मेरी बात सुनें। मैं पितरों का दुख मिटाने के लिए उनकी प्रेरणा से
कन्या की भीख मांग रहा हूं। जिस कन्या का नाम मेरा ही हो, जो
भिक्षा की तरह मुझे दी जाए और जिसके भरण-पोषण का भार भी मुझ पर
न रहे, ऐसी कन्या मुझे प्रदान करो।’5
परिणामस्वरूप,
नागराज वासुकि अपनी बहिन जरत्कारु को इस जरत्कारु ऋषि से ब्याहने को
तैयार हो जाता है तो ऋषि कहता है, ‘मैं इसका भरण-पोषण नहीं करूंगा, यह शर्त तो तय हो चुकी है। इसके अतिरिक्त एक शर्त यह है कि यह कभी मेरा अप्रिय
कार्य न करे। करेगी तो मैं इसे अवश्य छोड़ दूंगा।’6 -एक दिन ऋषि खिन्न-से भाव से अपनी गर्भवती पत्नी की गोद में सिर रख कर सोए थे और सूर्यास्त
का समय हो गया तो पत्नी ने सोचा, ‘पति को जगाना धर्म के
अनुकूल होगा या नहीं? ये बड़ा कष्ट उठाकर धर्म का पालन करते
हैं। कहीं जगाने या न जगाने से मैं अपराधनी तो नहीं हो जाऊंगी?
जगाने पर इनके प्रकोप का भय और न जगाने पर धर्म के लोप का।’7 अंतत: वह उन्हें
जगा देती है और वह ऋषि क्रोधित हो उन्हें छोड़ कर चले जाते हैं, बाद में आस्तीक का जन्म भी हो जाता है और जरत्कारु ऋषि के पितरों की
भी रक्षा हो जाती है।
लेकिन यह कहानी स्त्री की दयनीय स्थिति से जुड़े
कई प्रश्नों पर विचार करने के लिए बाध्य करती है। एक-यहां एक जर्जर ऋषि के साथ नागराज अपनी
बहिन का विवाह कर देता है यह जानने के बावजूद कि वह ऋषि उसकी बहन का भरणपोषण नहीं करेगा
या उसकी औकात ही नहीं थी उसका भरणपोषण करने की। जबकि आज भी यह पहली शर्त होती है या
यह मानकर चला जाता है कि पति अपनी पत्नी का या दोनों मिलकर सामूहिक रूप से अपने दांपत्य
जीवन की जरूरतों को पूरा करेंगे। लेकिन यहां ऋषि सिर्फ स्त्री भोग की ठेकेदारी लेता
है, वह भी सिर्फ अपनी सुविधा व मौज-मस्ती
के लिए। दो- यहां नारी की अपनी इच्छाओं के लिए कोई स्थान ही
नहीं है और ऋषि की इच्छापूर्ति व उसके हित के लिए किए गए कार्य के लिए भी वह उस स्त्री
का त्याग करता है, क्यूं?
तीन-यहां नारी की स्थिति दासी से भी बद्तर नजर
आती है, आखिर वह कौन-सी मजबूरी/परंपरा थी
कि नागराज वासुकि ने अपनी बहिन जरत्कारु की उस जर्जर, संवेदनहीन
व अविवेकी जरत्कारू ऋषि की गुलामी ही स्वीकार नहीं की बल्कि अपने संपूर्ण जीवन को
एक प्रकार से बलिवेदी पर चढ़ा दिया।
महाभारत में एक और अजीब प्रवृत्ति देखने को मिलती
है कि ये ऋषि-मुनि कहीं भी किसी सुन्दर स्त्री
को देखकर कामुक हो जाते हैं, उनका वीर्य स्खलन हो जाता है और
जहां कहीं भी उनका वीर्य स्खलन होता है वही पर उससे विलक्षण, ज्ञानी, शूरवीर और न जाने कौन-कौन
से चमत्कारी व दुर्लभ गुणों से युक्त बच्चे पैदा हो जाते है। यह पूरी संतान उत्पत्ति
की प्रक्रिया और सारे विज्ञान को झुठलाकर नए-नए तरीके से बच्चे
पैदा करने की संस्कृति का निर्माण करती है। इस अजीबो-गरीब अंधविश्वासी
संस्कृति को समझने के लिए कुछ उदाहरणों से गुजरना जरूरी महसूस हो रहा है। एक-स्वयं महाभारत के रचयिता व्यास के जन्म के विषय में कहा गया है,‘भगवान
व्यास का जन्म शक्ति-पुत्र
पराशर के द्वारा सत्यवती के गर्भ से यमुना की रेती में हुआ था। वे ही पाण्वों के
पितामह थे।’8
दो-धनुर्धर व तपस्वी शरद्वान के आश्रम में इन्द्र द्वारा भेजी जानपदी नाम की
देवकन्या के लुभाने से ‘उनके मन में विकार हुआ...उनका वीर्य सरकंडों पर गिरा था।’9 यह दो भागों बंट गया और ऐसे कृप और
कृपी का जन्म हुआ। तीन-महर्षि भारद्वाज गंगा स्नान करने गए
थे, उन्होंने देखा कि ‘घृताची अप्सरा स्नान
करके जल से निकल रही है। उसे देखकर उनके मन में काम-वासना जाग उठी। तब उनका वीर्य स्खलित होने लगा, तब उन्होंने उसे द्रोण नामक यज्ञपात्र में रख दिया। उसी में द्रोण (जिनका विवाह शरद्वान की पुत्री कृपी से हुआ) का जन्म
हुआ।10 चार-‘ ब्रह्मऋषि विभाण्डक सरोवर स्नान करने गए। वहां उर्वशी अप्सरा को देखकर
जल में ही उनका वीर्य स्खलित हो गया। इतने में ही वहां एक प्यासी मृगी आयी और वह
जल के साथ वीर्य को भी पी गई।...इसी से महामुनि ऋष्यश्रंड़्ग
का जन्म मृगी से हुआ।11 (यदि यह मृग पी जाता तो शायद
मृग से यह महामुनि पैदा होते। कृपी और कृप ....) पांच-
व्यास का पाण्डु, धृतराष्ट्र, व विदुर के अलावा भी एक पुत्र था जिसका नाम शुकदेव था। वर्णन कुछ इस प्रकार
है-‘एक बार व्यास अग्नि प्रकट करने के लिए अरणीमंथन कर
रहे थे। इसी समय उनकी दृष्टि परम रूपवती घृताची अप्सरा पर पड़ी। उसकी रूप संपत्ति
ने उनका मन आकर्षित कर लिया। इससे अकस्मात उनका वीर्य अरणी में गिरा। उसी से महातपस्वी
शुकदेव का जन्म हुआ।’12
महाभारत में एक अन्य प्रकार का उदाहरण देखने को
मिलता है। इसके अनुसार अग्निदेव की ऋषियों की पत्नीयों को देखकर कामाग्नि जागृत
हो जाती है और इसके शान्त न होने की दशा में वे वन में शरीर त्यागने चले जाते
हैं। लेकिन वहां स्वयं अग्निदेव की पत्नी स्वाह बारी-बारी से उन ऋषियों की पत्नीयों का
रूप धारण करती है (जिन्हें देखकर अग्निदेव कामाग्नि जागृति के
शिकार हुए थे।) और कामदेव की काम-वासना
को शांत करती है। इस सारे उपक्रम से एक ही विलक्षण पुत्र स्कंद का जन्म होता है।
परिणामस्वरूप, ये सारे ऋषि अपनी पत्नीयों के चरित्र पर शक करके
उनका त्याग करते हैं। लेकिन जब विश्वामित्र अपने को इस सारे प्रकरण का चश्मदीद होने
का दावा करते हैं और ऋषि पत्नीयों को निर्दोष बताते हैं तब ऋषि अपनी पत्नीयों को
स्वीकार करते हैं।13 यह सारा घटनाक्रम ऋषियों की
दूरदर्शिता, योग्यता व ऋषित्व पर बड़ा सवाल खड़ा करता है। ऋषि
कहां-कहां वीर्य स्खलन करते फिरते हैं, उनका कोई हिसाब नहीं लेकिन पत्नीयों के बारे में उन्हें सुचिता की सारी गारंटी
चाहिए। ऋषि और पत्नीयां दोनों का एक साथ होना किसी बड़े पाखंड व छलकपट का द्योतक है,
किसी सभ्यता का नहीं।
ऋषियों की कामुकता और इनके चरित्र को समझने की
कोशिश करें तो हम पाते हैं कि वे सिर्फ वीर्य स्खलन, राजकुमारियों से विवाह व उनके साथ
संभोग तक ही सीमित नहीं रहते थे बल्कि पशुओं तक को अपनी काम-वासना
का शिकार बनाने से नहीं चूकते थे। ऋषियों की इस प्रवृत्ति को समझने के लिए महाभारत
में व्यक्त किंदम ऋषि की मृगी के साथ मैथुन की कहानी का उल्लेख किया जा सकता है।
‘...एक यूथपति मृग अपनी पत्नी मृगी के
साथ मैथुन कर रहा था। पाण्डु ने साधकर पांच बाण मारे। मृग ने कहा...मुझ निरपराध को मारकर आपने क्या लाभ उठाया?
मैं किंदम नाम का तपस्वी मुनि हूं। मनुष्य रहकर यह काम करने में मुझे
लज्जा मालूम हुई, इसलिए मृग बनकर अपनी मृगी के साथ मैं विहार
कर रहा था।...यदि आप अपनी पत्नी के साथ सहवास करेंगे तो उसी
अवस्था में आपकी मृत्यु होगी और वह पत्नी आपके साथ सती हो जाएगी।’14 यही नहीं सूर्य की पत्नी बड़वा (घोड़ी) से अश्विनीकुमारों का जन्म हुआ।15
यहां सूर्य का जिकर आया है और उसके घोड़ी के साथ संभोग के कारण अश्विनीकुमारों
के जन्म की बात कही गई है। यह घटनाक्रम मुझे यह सोचने पर विवश करती है कि क्या यह
वही सूर्य हैं जिनकी कृपा से कुंती को कर्ण की प्राप्ति हुई थी। यदि ऐसा है तो अश्विनीकुमारों
और कर्ण एक ही पिता की संतान होने के कारण भाई-भाई होने चाहिए।
यह किस्सा इस बात पर विचार करने को बाध्य करता है कि पशुओं के साथ यौनाचार करने वाले
ये तथाकथित सूर्य इतने तेजस्वी और तथाकथित ईश्वरीय शक्तियां कैसे रखते थे। क्या
इन तथाकथित ईश्वरीय शक्तियों को हासिल करने के लिए पशुओं से यौनाचार भी एक योग्यता
का आधार था?
किंदम ऋषि में पाण्डु को श्राप देने की क्षमता और
सूर्य में कर्ण को कवच-कुंडल
सहित पैदा करने की चमत्कारिक क्षमता तो इसी ओर इशारा करती है। यहां एक और मजे की बात
सामने आती है कि इंसानों से जानवर और जानवरों से इंसान पैदा होते थे। इसके लिए महाभारत
में कहा गया है कि ‘केराहिणी से गाय बैल और गन्धर्वी से घोड़े पैदा हुए।’16 साफ है कि सिर्फ स्त्रियां ही नहीं
थी बल्कि निरीह पशु भी इन ऋषियों के यौनाचार के शिकार थे। महाभारत में चमत्कारिकता
के कुछ नमूनों पर विचार किया जा सकता है। दक्षप्रजापति की दो कन्याएं कद्रू और विनता
थीं। उनका विवाह कश्यप ऋषि से हुआ।...कद्रु ने एक हजार और विनता
ने दो अंडे दिए।...पांच सौ वर्ष पूरे होने पर कद्रु ने तो हजार
पुत्र निकाल लिए।17 यहां किसी स्त्री से अंडे देने
का मामला सामने आता है और किसी से सीधे-सीधे बच्चे और वह भी
हजारों की संख्या तक। गर्भ धारण की अवधि के बारे में और भी अजीब उदाहरण मौजूद हैं।
जैसे- महाभारत में बच्चे पैदा करने की भी अजीब रीत है गंधारी
दो वर्ष में बच्चे पैदा करती है, द्रोपदी एक-एक वर्ष में और ‘अगस्त्य मुनि की संतान लोपामुद्रा के पेट में गर्भ
सात वर्ष तक बढ़ता रहता है।’18
इस बच्चे पैदा करने की अलग-अलग अवधि के वर्णन
से मुझे स्त्री के प्रति किसी साजिश की बू आती हे। यह स्थिति सवाल खडा करती है कि क्या ये बच्चे स्त्री–पुरुष के स्वाभाविक संबंधों
से पैदा होते थे या किसी अस्वाभाविक शारीरिक संबंधों के तहत जिसमें स्त्री और पशुओं
के संबंधों के द्वारा जैसा कि अश्वमेघ यज्ञ (घोड़े और अश्वमेघ
यज्ञ करने वाले राजा की रानी का संभोग का वर्णन मिलता है) के
संबंध में देखने को मिलता है।
इतना ही नहीं कुछ अन्य उदाहरण भी महाभारत में
देखने को मिलते हैं, जैसे-वसिष्ठ की पुत्रवधु अदृश्यंती के गर्भ में बारह वर्ष से वसिष्ठ का पोत्र
वेदाध्यन कर रहा था।’ राजा वृहद्रथ की दो पत्नीयों के आधे- आधे बच्चे क्योंकि उन्होंने आधा-आधा फल खाया था,
बाद में दोनों मिलकर एक वीर बनता है, जिसका नाम
जरासंध है।19 कृप और कृपी के जन्म के बारे में
भारद्वाज के वीर्य स्खलन की अजीबोगरीब कहानी महाभारत में मौजूद है।20
सामान्य प्रक्रिया की तरह पशुओं से मैथुन, वीर्य
स्खलन से बच्चे पैदा होना और वे भी साधारण नहीं बड़े ही मेधावी, शूरवीर और इतिहास रचने वाले। महाभारत के यौनाचार को किस रूप में समझा जाए और
इसके कारण स्त्री किस प्रकार की शारीरिक व मासिक यातनाओं से गुजरती होगी, इसका फैसला पाठकों पर छोड़ना ही श्रेयकर होगा। । व्यास का पूरे महाभारत में
शुरु से अंत तक रहना और महाभारत में ही मार्कण्डेय की उम्र हजारों वर्ष होना।21
आयु के इतना लम्बा होने के मामले यानी अजूबे भी स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक संबंधों और महाभारत की विश्वसनीयता के विषय में अनेक
प्रकार के सवाल खड़े करते हैं। खैर...
पूरे महाभारत में मुझे ऐसा भी कहीं देखने को नहीं
मिलता कि किसी राजकुमारी से किसी ऋषि के साथ उसके विवाह के संबंध में कोई राय व
इच्छा जानने की जरूरत समझी गई हो। उन्हें गाय-भैंस या भेड़-बकरियों की तरह दोहन के
लिए ऋषियों के हवाले कर दिया जाता था। इसके पीछे राजाओं का ऋषियों के श्राप से डरना
था या स्त्रियों को इतना महत्व ही नहीं दिया जाता था कि उनके ऋषियों के विषय में भावी
जीवन की सुख-शान्ति के बारे में या उनके जीवन में ऐसे बेमेल विवाह
के कारण उठने वाले ज्वार-भाटों के परिणामों के बारे में सोचा
जाए। इस संबंध में मुझे एक कहावत याद आती है कि चाहे खरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजे
पर, दोनों ही स्थितियों में नुकसान खरबूजे का ही होना तय होता
है। मुझे ऋषियों और राजकुमारियों के विवाह के संबंध में स्त्री खरबूजे की स्थिति में
नजर आती है और ऋषि चाकू की स्थित में और इसमें शक की कोई गुजाइश नजर नहीं आती कि इस
सबका खामियाजा राजकुमारियों (स्त्रियों) को ही भुगतना पड़ता था। यहां इनकी घुटन, दासता व बेबसी
की लम्बी जिंदगी की कल्पना मात्र से कलेजा मुंह को आता है।
महाभारत में स्पष्ट हैं कि ऋषि राजाओं को ब्लैकमेल
भी करते थे। इसको समझने के लिए राजा शर्याति का उदाहरण लिया जा सकता है। किस्सा
कुछ इस प्रकार है कि राजा शर्याति अपनी रानियों व पुत्री सुकन्या के साथ सरोवर पर
क्रीड़ा करने आया तो उसकी पुत्री ने सहेलियों सहित तपस्यारत व मिट्टी से ढके ऋषि
की बांबी के छिद्र में कांटे चुभा दिए और बाद में पता चला कि उससे च्यवन ऋषि की
आंखो में छेद हो गया है। भृगुनंदन च्यवन ने राजा से कहा, ‘इस गर्वीली छोकरी ने
अपमान करने के लिए ही मेरी आंखें फोड़ी हैं। अब इसे पाकर ही क्षमा कर सकता हूं।’ अंतत: सुकन्या का विवाह कुरूप च्यवन ऋषि से कर दिया
गया।22 यह घटना साफ दर्शाती है कि राजा कितने विवश
थे और ऋषि कितने सशक्त। यहां देखने की बात यह है कि ऋषि को अपनी पुत्री, पौत्री या परपौत्री की उम्र की लड़की को सजा देने को मात्र एक ही रास्ता नजर
आता है, वह है उससे विवाह करने का और उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं।
यह कैसी नैतिकता थी इन ऋषियों की। क्या यह सीधा-सीधा इन ऋषियों
की कामुकता की ओर इशारा नहीं करता। एक ऋषि जो इतनी गहन तपस्या में लीन है कि उसका
सारा शरीर मिट्टी से ढक गया है, और यह भी पता नहीं चलता कि यह
कोई जीव है या फिर मिट्टी का ढेर लेकिन जैसे ही वह होश में आता तो दोषी राजकुमारी से
सिर्फ शादी करके ही उसे उसकी गलती का दंड देता है। राजा इतना भीरू कि अपनी पुत्री की
रक्षा करने में एकदम नाकाम। शायद ये राजा भी अपनी पुत्रियों को इंसानों की श्रेणी में
नहीं संवेदनहीन वस्तुओं की श्रेणी में मानते थे। तभी तो ‘कन्नौज
के राजा गाधी जब बन में जाकर रहने लगे थे और वहां उसके यहां एक पुत्री (सत्यवती) उन्पन्न
हुई थी तो उसने ऋचीक मुनि के साथ उसका ब्याह कर दिया था।23
महाभारत में एक जगह अपवाद स्वरूप एक
उदाहरण देखने को मिलता है जिसमें राजा अपनी पुत्री के ऋषि अगस्त्य से शादि के
प्रस्ताव के संबंध में परेशान हैं। यहां संकेत मिलता है कि ऋषि राजाओं को ब्लैकमेल
करते थे। लेकिन यहां भी राजा यानी क्षत्रिय (जिसके कंधों पर अपने राज्य की पूरी प्रजा की रक्षा की जिम्मेदारी होती है)
अपनी पुत्री को ऋषि से मुक्ति का मार्ग नहीं तलाशता बल्कि स्वयं उनकी
बेटी लोपामुद्रा ही अपने माता-पिता की चिंता और डर की मुक्ति
का मार्ग अपने अरमानों का खून करके तलाशती
है। किस्सा कुछ इस प्रकार है-अगस्त्य ऋषि ने विदर्भ देश के
राजा से कहा-‘राजन! पुत्रोत्पत्ति की इच्छा से
मेरा विचार विवाह करने का है। इसलिए मैं आपसे आपकी पुत्री लोपामुद्रा को मांगता हूं।
आप मेरे साथ इसका विवाह कर दें।’ मुनिवर अगस्त्य ऋषि की बात
सुनकर राजा के होश उड़ गए। वे न तो अस्वीकार ही कर सके और न ही कन्या देने का साहस
ही।...वे अपनी व्यथा महारानी को बताते हुए कहते हैं-‘प्रिये!
महर्षि अगस्त्य बड़े ही तेजस्वी हैं। वे क्रोधित हो गए तो हमें श्राप
की भयानक आग से भस्म कर डालेंगे।...तब राजा और रानी को अत्यंत
दुखी देख राजकन्या लोपामुद्रा ने उनके पास आकर कहा, ‘पिताजी!
मेरे लिए आप खेद न करें, मुझे अगस्त्य मुनि को
सौंपकर अपनी रक्षा करें।’24
पूरे महाभारत में जहां तक मुझे याद आता है, केवल लोपामुद्रा ही अकेली ऐसी राजकुमारी
हैं जो थोड़ा साहस दिखाती नजर आती है जब वह अगस्त्य ऋषि से कहती है-‘काषाय
वस्त्रों को धारण करके मैं समागम नहीं करूंगी।
यह तप का बाना बड़ा पवित्र है, इसे किसी प्रकार के संभोग आदि के द्वारा अपवित्र नहीं करना चाहिए।’25 यह विद्रोह उस ऋषि से विवाह करने से
इंकार नहीं है बल्कि एक प्रकार का परिस्थितियों से समझोता जैसा है। इस उदाहरण से अनुमान
लगाना कठिन नहीं है कि उस समय स्त्रियों की स्थिति कितनी विवशतापूर्ण, अंधविश्वासी व धर्मभीरूतापूर्ण रही होगी कि राजा भी ऋषियों के सामने निरीह
प्राणियों जैसा आचरण करते थे। शायद इन राजकुमारियों में अन्याय के विरुद्ध कुर्बानी
का जज्बा नहीं रहा होगा तभी तो ये इंसानी अधिकारों से महरूम रहने पर विवश रही होगी।
महाभारत में कुछ परिस्थितियां ऐसी भी नजर आती हैं
जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि महाभारत में स्त्री को उपहार रूप में भी भेंट
किया जाता था। एक जगह नारद जी सृन्जय से कह रहे हैं-‘राजा भगीरथ की मृत्यु की बात सुनी गई है। उन्होंने
यज्ञ करते समय गंगा के दोनों किनारों पर सोने की ईंटों के घाट बनवाए थे तथा सोने के
आभूषणों से विभूषित दस लाख कन्यांए ब्राह्मणों को दान की थी। सभी कन्याएं रथों में
बैठी थी, सभी रथों में चार-चार घोड़े जुते थे।’26 यहां सोने के आभूषणों से विभूषित दस
लाख कन्याएं ब्राह्मणों को दान देने की जो बात कही जा रही है, यह प्रश्न खड़ा करती है कि ये दस लाख कन्याएं कौन थी?
क्या वे ब्राह्मण थी, क्षत्रिय थी, वैश्य थी, शूद्र थी या वर्णव्यवस्था से बाहर इस देश
की मूलनिवासी थी? दूसरा सवाल यह उठता है कि ये ब्राह्मण
इन स्त्रियों का करते क्या थे? ये अपने आप में स्त्री अस्मिता
पर बड़े सवाल हैं और ये सवाल उस समय के पुरुष समाज पर भी हैं। वैसे इसमें हैरानी की
बात भी नहीं है कि जिस समाज का ऋषि इतना कामुक व लंगोट का इतना कच्चा हो तो उसका अन्य
समाज कैसा होगा। इसलिए ऋषि के बाद तो नंबर ब्राह्मण का ही आता है फिर अपनी चलती व इस
यौन अनाचार की नंगी दौड़ में वह क्यूं कसर छोड़ता।
मुद्दा ब्राह्मणों तक ही सीमित नही, इसकी जड़ें बड़ी गहराई तक अन्य वर्णों
में भी नजर आती हैं। बानगी के लिए अर्जुन व सुभद्रा विवाह का उदाहरण लिया जा सकता है।
मामला कुछ इस प्रकार है-‘श्री कृष्ण ने सुभद्रा के विवाह में अनेक संख्या
में उपहार व धनराशी के साथ-साथ ‘सब
प्रकार से योग्य सहस्त्र दासियां’ भी उपहार में दीं।27
अब ये दासियां किस लिए दी गई थीं, यह सवाल भी कम
बड़ा नहीं है। भई जिस राज्य में पहले से ही सारी व्यवस्था है वहां इन दासियों के
भरण-पोषण की जिम्मेदारी कोई यूं ही तो नहीं उठाता। यह राजाओं
का शगल तो था ही साथ में साफ है कि यह उनकी एय्यासी का भी एक सुनियोजित षडयंत्र था।
जाहिर है कि स्त्री के पास भोग की वस्तु बने रहने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं
था। अपनी अस्मिता की पहचान व इसकी रक्षा के लिए अपने जीवन को समाप्त करने की सोच शायद
उस समाज में पैदा ही नहीं होने दी गई थी। इसकी दूसरी वजह अत्याचार की अति भी हो सकती
है क्योंकि उस जमाने में संभवत: स्त्री गुलामी से मुक्ति के
लिए अन्य कोई विकल्प सोचने की क्षमता ही खो चुकी थी।
महाभारत में ऋषियों व अन्य प्रवृत्तियों के माध्यम
से स्त्री जीवन को समझने के उपरान्त अब महाभारत के अन्य जाने-माने पात्रों के माध्यम से स्त्री
जीवन को समझने का प्रयास करते हैं। इसकी शुरुआत चिर-परिचित पात्र
दुष्यंत और शकुंतला से की जा सकती है। कुरुवंश/पुरुवंश का प्रवर्तक
था राजा दुष्यंत। एक दिन दुष्यंत अपनी सेना के साथ वन में जाता है और अपनी सेना को
बाहर छोड़कर काश्यप-गोत्रिय कण्व ऋषि के आश्रम में प्रवेश करता है। वहां वह कण्व
ऋषि की अनुपस्थिति में उनकी पुत्री शकुंतला (इन्द्र द्वारा विश्वामित्र
का तप भंग करने के लिए भेजी गई अप्सरा थी। उसी के संयोग से शकुंतला का जन्म हुआ था।)28
दुष्यंत पहली ही मुलाकात में शकुंतला से गन्धर्व विवाह की पेशकश करता
है लेकिन शकुंतला पिता के आने की प्रतीक्षा करने को कहती है। इस संदर्भ में दुष्यंत
शकुंतला से कहते हैं-‘मैं तुम्हें चाहता हूं, यह भी चाहता हूं कि तुम मुझे स्वयं
वरण कर लो। मनुष्य स्वयं ही अपना हितैषी और जिम्मेवार है। तुम धर्म के अनुसार स्वयं
ही अपना दान करो।’...किसी तरह शकुंतला सशर्त राजी हो जाती
है और राजा से प्रतीज्ञा करवा लेती है कि ‘मेरे बाद तुम्हारा ही
पुत्र सम्राट होगा और मेरे जीवनकाल में ही वह युवराज बन जाएगा।’29
दोनों ने गन्धर्व विवाह किया और दुष्यंत ने उससे
समागम किया और वह गर्भवती होकर छ वर्ष तक पिता के घर रहती रही। एक प्रकार से राजा
उसे भूल ही जाता है लेकिन शकुंतला अपने पुत्र को लेकर हस्तिनापुर जाती है और काफी
जद्दोजहद के बाद एक आकाशवाणी के उपरांत राजा दुष्यंत भरत को पुत्र के रूप में स्वीकार
कर लेता है और उसका राज्याभिषेक भी कर दिया जाता है। यह राजाओं की कैसी शगल थी कि
वे किसी भी सुंदर स्त्री को देखते ही मोहित हो जाते हैं, उससे शारीरिक संबंध बनाते हैं और उसे
भूल भी जाते हैं और अपनी काम-वासना की पूर्ति के लिए न जाने कैसे-कैसे वचन दे डालते हैं। ऐसे कारनामों को किसी राजा की परिपक्वता व दूरदर्शिता
तो नहीं कहा जा सकता। जाहिर है कि इसे नारी के स्वाभिमान व अस्मिता के पक्ष में भी
नहीं माना जा सकता। यह स्थिति भी कमोबेश नारी को भोग की वस्तु के अतिरिक्त कोई सम्मान
देने की पक्षधर नजर नहीं आती।
इसी कड़ी में शान्तनु व गंगा का ऐपीसोड लिया जा
सकता है। शान्तनु का विवाह भागीरथी गंगा से कुछ वैसे ही हुआ जैसे दुष्यंत के सम्मोहन/आशक्ति के कारण शकुंतला से होता है।
शान्तनु भी गंगा की वे शर्तें मान लेता है कि गंगा अपने पुत्रों का क्या करती है,
इस विषय में कोई प्रश्न नहीं करेंगे और जिस दिन वह यह प्रश्न करेंगे
उसी दिन वह उन्हें छोड़कर चली जाएगी। गंगा और शान्तनु के आठ पुत्र होते हैं और गंगा
सात को गंगा नदी में बहा देती है। अंतत: आठवें पुत्र देवव्रत
(भीष्म) के जन्म के साथ शान्तनु के सब्र
का पैमाना टूट जाता है और वह उसे गंगा में बहाने से रोकता है और कारण पूछकर अपनी प्रतीज्ञा
तोड़ देता है। गंगा इसका कारण तो बता देती लेकिन वह शान्तनु को छोड़ कर चली जाती है
और शान्तनु विरह की आग में जलता पीछे छूट जाता है।
शान्तनु इस घटनाक्रम से कोई सबक लेते नजर नहीं
आते और फिर सत्यवती की ओर आकर्षित हो जाते हैं लेकिन इस बार वह अपने और सत्यवती
से पैदा होने वाले पुत्र को राजा बनाने का वचन नहीं देते। परिणामस्वरूप, वह विरह की आग में घुट-घुटकर मरने लगते हैं। इस बार ढलती उम्र के पिता की कामवासना की पूर्ति के लिए
पुत्र देवव्रत अपनी खुशियों की कुर्बानी देता है और स्वयं कभी विवाह न करने की भीष्म
प्रतीज्ञा कर वह भीष्म बन जाता है। भीष्म के अलावा पूरे महाभारत में ऐसा कोई पात्र
नहीं है जो इच्छा मृत्यु का वरदान पाने का अधिकार रखता है। लेकिन भीष्म है कि अकेले
इच्छा मृत्यु के अधिकार से सुशोभित है। इस संदर्भ में विचारणीय
बिंदु यह है कि क्या एक कमजोर इच्छाशक्ति
का व्यक्ति (शांतनु) अपने पुत्र को इच्छा मृत्यु का वरदान दे सकता है। यह किसी भी तर्क से संभव
नहीं है, लेकिन यह महाभारत है यहां सब कुछ संभव हो सकता है।
खैर,
जो कुछ भी है देवव्रत यानी इतिहास का भीष्म अपने पिता की प्रसन्नता
के लिए सत्यवती के साथ उनका विवाह करा देता है और स्वयं शादी नहीं करता। स्वाभाविक
है कि वह ऋषियों की तरह किसी वीर्य स्खलन से भी बच्चे पैदा नहीं करता और न ही किसी
सुंदरी व अप्सरा की ओर ही आकर्षित होता है। पूरे महाभारत में शायद भीष्म ही ऐसे इकलौते
अपवाद हैं, जिसे स्त्री के प्रति आशक्त नहीं दिखाया गया है।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है वे स्त्री के प्रति किसी विशेष सम्मान के पक्षधर रहे
हैं या स्त्री अस्मिता व सशक्तता के लिए उन्होंने कोई बहुत बड़ा संघर्ष या कीर्तिमान
स्थापित किया है। उनका स्त्री को भोग की वस्तु समझने का अपना अलग अंदाज था। भीष्म
काशी नरेश की तीन कन्याओं अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका को
बलपूर्वक हरकर...’विजयी होकर कन्याओं के साथ हस्तिनापुर लौट आये। वहां
उन्होंने तीनों कन्याएं विचित्रवीर्य को समर्पित कर दीं और उनके विवाह का आयोजन किया।’30 अम्बा तो वापस चली गई क्योंकि उसने
मन ही मन शाल्व को अपना पति मान लिया था। लेकिन शाल्व ने उसे भीष्म द्वारा हर लिए
जाने के कारण विवाह करने से मना कर दिया। जब वह वापस लौटकर विचित्रवीर्य के पास आती
है तो वह भी उसे इस लिए अस्वीकार कर देता है कि उसने शाल्व को मन ही मन अपना पति
मान लिया था। यही अम्बा बाद में चलकर शिखंडी बनती है और भीष्म से अपनी दुर्दशा का
बदला लेती है।
इसी के चलते अम्बा का जीवन तो दोनों ओर से ठुकराए
जाने के कारण तबाह हुआ जिसके जिम्मेदार भीष्म थे। बाकी दो बहनों का जीवन भी भीष्म
के कारण ही तबाह हुआ। होता ऐसे है कि भीष्म के पिता शान्तनु और सत्यवती से दो
पुत्र पैदा होते हैं। एक का नाम विचित्रवीर्य और दूसरे का नाम चित्रांगद था। (इस संबंध में गौरतलब यह भी है ‘व्यास
का जन्म शक्तिपुत्र पराशर के द्वारा सत्यवती के गर्भ से यमुना की रेती में हुआ था।
वे पाण्डवों के पितामह थे।’31
भीष्म भी पांडवों के पितामह थे अर्थात ये दोनों एक प्रकार से भाई-भाई थे।) चित्रांगद बचपन में ही गन्धर्वों के हाथों
मारा जाता है। इसके बाद विचित्रवीर्य राजा होते हैं। भीष्म द्वारा जबरन हरण करके लाई
गई काशी नरेश की तीनों पुत्रियों में से दो पुत्रियों अम्बिका और अम्बालिका का चित्रांगद
से विवाह करा दिया जाता है।(अम्बा चली जाती है) गौरतलब है कि न तो विचित्रवीर्य ने उन्हें स्वयंवर में जीता था और न ही
उन्होंने विचित्रवीर्य से स्वेच्छा से शादी ही की थी। यानी भीष्म इन दोनों बहनों
को जबरन व एक प्रकार से खैरात में अपने अयोग्य व पौरुषविहीन भाई विचित्रवीर्य को दे
देता है। परिणामस्वरूप, अम्बिका और अम्बालिका के साथ ‘सात
वर्ष तक विषय सेवन करते रहने के कारण भरी जवानी में विचित्रवीर्य को क्षय हो गया और
बहुत चिकित्सा करने पर भी वह चल बसा।’32 यहां भीष्म के ही कारण तीन मासूम राजकुमारियों
का जीवन तबाह होता है । यह प्रवृत्ति जिसकी लाठी उसकी भैंस की मानसिकता की द्योतक है
और भीष्म को स्त्री विरोधी कठघरे में खड़ा करती है।
भीष्म का स्त्री विरोधी चरित्र का अंत यहीं नहीं
होता बल्कि और आगे तक जाता है। जब विचित्रवीर्य नि:संतान मर जाता है तो दोनों बहनों अम्बिका और अम्बालिका की
अस्मिता से फिर खिलवाड़ होता है। उसकी माता सत्यवती ने सोचा कि अब तो दुष्यंत के
वंश का उच्छेद हुआ। उसने व्यास का स्मरण किया और उनके आने पर कहा कि ‘तुम्हारा
भाई विचित्रवीर्य बिना संतान के ही मर गया। तुम उसकी वंश रक्षा करो। व्यास ने माता
की आज्ञा स्वीकार करके अम्बिका से घृतराष्ट्र, अम्बालिका से पाण्डु और दासी से विदुर को उत्पन्न किया।’33 गौतलब है कि यहां एक ऋषि (व्यास) है
और किसी व्यक्ति के ऋषि हो जाने के उपरांत न उसके माता-पिता
ही रह जाते हैं और न ही अन्य कोई और अन्य कोई रिश्ते-नाते ही। बुद्ध को इसका एक
अनुपम उदाहरण माना जा सकता है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि ऋषि व्यास ने अपने छोटे
भाई की पत्नीयों से शारीरिक संबंध बनाने की क्यों सोची। यह पूरी तरह अनैतिक है,
एक ऋषि के स्तर पर भी और एक बड़े भाई के स्तर पर भी। अगर यह कार्य
इतना ही धर्मसंगत था तो यह काम भीष्म से भी कराया जा सकता था। खैर... यहां ऋषि यानी संयासी व्यास से बच्चे पैदा कराने के निर्णय में भीष्म
भी बराबर के साझीदार हैं। वे सारे स्त्री विरोधी निर्णयों में बराबर के भागीदार रहते
हैं लेकिन प्रतिज्ञा के कारण भीष्म बने रहते हैं। अर्थात वह पुरुष/पिता के लिए तो सब कुछ करते हैं लेकिन महिलाओं के हितों के रक्षक बनकर खड़े
होने की अपेक्षा उनके हितों के खिलाफ खड़े नजर आते हैं। भीष्म महिला हितों
के प्रति संवेदनहीनता को ही शाल्य नरेश की तीनों पुत्रियों अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका की बर्बादी के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
थोड़ी देर के लिए सत्यवती और भीष्म द्वारा
प्रायोजित ऋषि व्यास द्वारा शारीरिक संबंध बनाने को और राज्य को वारिश देने की
मजबूरी को इनके कुतर्क के आधार पर स्वीकार कर लें तो दासी से ऋषि व्यास के संभोग
और उससे विदुर नामक पुत्र पैदा करने के पीछे के तर्क को कैसे उचित मान लिया जाए।
कहा गया है कि ‘जब अपनी-अपनी माता के दोष के कारण धृतराष्ट्र अंधे और पांडु पीले हो गये, तब अम्बिका की प्रेरणा से उसकी दासी ने व्यास जी के द्वारा ही विदुर को उत्पन्न
किया।’34
यदि हम धृतराष्ट्र अंधे और पांडु के पीले होने के प्रकरण पर विचार करें
तो ऐसा प्रतीत होता है कि संभवत: ये दोनों अम्बिका और अम्बालिका
व्यास के साथ संभोग को स्वीकार नहीं कर पा रही थी, इसे बलात्कार
की संज्ञा दी जाए तो पूरी तरह गलत नहीं कहा जा सकता। संभवत: बलात्कार की वजह से
ही धृतराष्ट्र अंधे और पांडु पीले हो गए थे। लेकिन एक सच्चाई यह भी साफ-साफ दिखलाई पड़ती है कि बच्चे पैदा करना ऐसा नहीं था कि जैसे कम्प्यूटर
में कमांड दी और प्रिंट बाहर। बच्चा अपने विकास के लिए पूरा समय लेता है। फिर यह कैसे
पता चल गया कि एक बच्चा अंधा पैदा हो रहा है और दूसरा पीलियाग्रस्त। जाहिर है कि
इस तर्क के आधार पर व्यास द्वारा विदुर की मां दासी के साथ शारीरिक संबंध को तर्कयुक्त
व नैतिक नहीं ठहराया जा सकता। यह ऋषि की कामुकता थी और इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं।
स्त्री शोषण की इस झूठी कहानी को परखने के लिए
विचार किया जा सकता है कि जब अम्बिका और अम्बालिका से व्यास के संभोग का मुद्दा
वंश चलाने का था तो फिर व्यास के दासी के साथ शारीरिक संबंध स्थापित करने का क्या
मतलब था? इसका पुरुष के संदर्भ में सीधा-सा अर्थ अपनी काम वासना शांत करना था और दासी के संबंध में इसका सीधा-सा अर्थ यह निकलता है कि उनका शारीरिक शोषण आम बात रही होगी। महाभारत की स्त्री–विरोधी
मानसिकता के चलते व्यास द्वारा उसके (दासी) शारीरिक शोषण की घटना सामान्य घटना ही कही जा सकती है जिसके परिणामस्वरूप
विदुर का जन्म होता है। यदि दासी से व्यास का शारीरिक संबंध उसी उद्देश्य के लिए
होता जिसके लिए अम्बिका और अम्बालिका के लिए था तो फिर महाभारत में विदुर को हस्तिनापुर
का राजा क्यूं नहीं बनाया गया। जब वंश पिता से चलता है तो विदुर के पिता भी तो व्यास
ही थे। इस ऐपीसोड में गौरतलब यह भी है कि धृतराष्ट्र के अंधे और पांडु के पीलियाग्रस्त
होने के पीछे तर्क दिया गया है कि अम्बिका और अम्बालिका ने व्यास को सहयोग नहीं
किया था, वे डर गई थी लेकिन विदुर की मां ने तो हर तरह से सहयोग
किया था फिर विदुर को सिर्फ कहा गया कि ‘विधुर के समान धर्मज्ञ
और धर्मपरायण तीनों लोकों में कोई नहीं था।’35 लेकिन पांडु और धृतराष्ट्र के विषय
में कहा गया है-‘मनुष्यों में सबसे श्रेष्ठ धनुर्धर थे पाण्डु और
सबसे अधिक बलवान थे धृतराष्ट्र।’36
वास्तव में विदुर के साथ धर्मज्ञ और धर्मपरायण के साथ-साथ सबसे अधिक बलवान और धनुर्धर (शूरवीर) होना चाहिए था। लेकिन विदुर के साथ तो शुरु से भेदभाव हुआ है इसी वजह से तो
उसका विवाह भी एक दासी से ही कराया जाता है-‘भीष्म जी ने सुना कि
राजा देवक के यहां एक सुंदरी एवं युवती दासीपुत्री है। उन्होंने उसे मांगकर परम ज्ञानी
विधुर जी के साथ उसका विवाह कर दिया।’37
वैसे व्यास से वंश चलवाना भी अर्थहीन ही है क्योंकि
इस कहानी में एक और बड़ा छिद्र है, वह है-ऋषि व्यास ऋषि पाराशर और सत्यवती की संतान था,
फिर उससे भरत वंश चलाने की बात कैसे व्यवहारिक कही जा सकती है। (उससे भरत वंश चल रहा था या व्यास वंश या पाराशर वंश) यदि सत्यवती के कारण भरत वंश चलना था तो फिर संतान उत्पन्न करने के लिए
ऋषि व्यास को ही क्यूं बुलाया जाता है। यह संतान उत्पन्न कराने का कार्य तो किसी
‘ऐरे गैरे नत्थू खैरे’ से बुलाकर कराया जा सकता था, फिर व्यास ही क्यूं?
वह भरत वंश अम्बिका और अम्बालिका से चलता रहता। लेकिन मौजूदा केस में
मुझे तो यह ऋषि पाराशर का वंश चलता नजर आता है। यदि इस घटनाक्रम को पांडु व कुंती के
संदर्भ में देखें तो भी यह वंश भरत वंश की कसौटी पर खरा उतरता नजर नहीं आता,
क्योंकि महाभारत में कुंती और पांडु के शारीरिक संबंधों से तो कोई भी
संतान पैदा नहीं होती। कोई सूर्य से, कोई चन्द्र से,
कोई इन्द्र से.... और ये सभी स्वाभाविक प्रक्रिया
से उत्पन्न नहीं होते। ऐसे में इन्हें भरतवंशी कहा जाना कितना सुरक्षित व तार्किक
है और कितना नहीं, इसका फैसला सुधिजन पाठक स्वयं ही कर लें।
विदुर की मां के साथ ऋषि व्यास के शारीरिक संबंध
स्थापित करने का मुद्दा राज दरबारों में दासियों के देहिक शोषण का जीता जागता
उदाहरण है। इसका किसी वंश परंपरा स्थापित करने से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन एक बड़ा सवाल यह
भी है कि महाभारत में इस विदुर के पैदा होने के ऐपीसोड में ऐसा लगता है जैसे ऋषि से
संबंध बनाने का स्वार्थ दासी (विदुर की मां) का था क्योंकि यहां कहलवाया गया-‘अम्बिका की प्रेरणा से
उसकी दासी ने व्यास जी के द्वारा ही विदुर को उत्पन्न किया।’38 यहां दासी अम्बिका से प्रेरणा लेकर
विदुर को पैदा कराती है और जैसे राजपरिवार का इस घटनाक्रम से कुछ लेना-देना नहीं था। इस पाखंड की हकीकत को समझने के लिए घृतराष्ट्र का उदाहरण लिया
जा सकता है। घटना कुछ इस प्रकार है-‘जिन दिनों गांधारी गर्भवती
थी और धृतराष्ट्र की सेवा करने में असमर्थ थी,
उन्हीं दिनों एक वैश्य कन्या उनकी सेवा में रहती थी और उसी के गर्भ
से उसी साल धृतराष्ट्र के युयुत्सु नाम का
पुत्र हुआ था।’39
इसी कड़ी में पांडवों के अज्ञातवास के दौरान
सुदेष्णा (राजा विराट की पत्नी)
द्वारा सैरन्ध्री (द्रोपदी) को अपने भाई कीचक के लिए उसकी काम वासना शांत करने को भेजना भी स्त्री का
दासी के रूप में देहिक शोषण का जीता जागता उदाहरण है। ऐसा लगता है कि जैसे पुरुष के
साथ-साथ स्त्री भी इसे सामान्य परंपरा का हिस्सा मानती थी
वरना न सुदेष्णा द्रोपदी को कीचक के पास भेजती और न ही गांधारी अपने पति के दासी संबंधों
और उससे युयुत्सु नामक पुत्र के पैदा होने
पर मौन रहती। इसका विरोध महाभारत में नजर नहीं आता। यहां सुभद्रा का अर्जुन द्वारा
जबरन हरण करना भी ऐसी ही प्रक्रिया का हिस्सा नजर आता है तभी तो जब अर्जुन सुभद्रा
को इन्द्रप्रस्थ लेकर आए ‘सुभद्रा ने द्रौपदी के
पैर छूकर कहा कि ‘बहिन! मैं तुम्हारी दासी हूं।’40 साफ है कि दासियों को इन राजाओं के
दरबारों में येन केन प्रकेन लाया जाना और अपने भोग-विलास के लिए
इस्तेमाल किया जाना आम बात थी। दासी के रूप में स्त्री शोषण की प्रकिया को नारी अस्मिता
पर घिनौने दाग के रूप में देखा जा सकता है।
महाभारत में स्त्री को समझने के लिए पुन: भीष्म पर लौटना जरूरी महसूस हो रहा
है। गांधारी और धृतराष्ट्र के विवाह के संदर्भ में भी भीष्म की भूमिका स्त्री विरोधी
व स्त्री के प्रति संवेदनहीनता की ही नजर आती है। भीष्म ने गांधार राजा सुबल की पुत्री
जिसने भगवान शंकर की आराधना करके सौ पुत्रों का वरदान प्राप्त कर लिया है,
के लिए धृतराष्ट्र के साथ विवाह का संदेश भेजा। ‘जब
गांधारी को पता चला कि उसका पति नेत्रहीन है,
तब उसने एक वस्त्र का कई तह करके उससे अपनी आंखें बांध ली।’41 संभवत: एक-धृतराष्ट्र
के साथ गांधारी का विवाह भी दबाव/दहशत के कारण अस्तित्व में
आया हो और गांधारी व उसके पिता के पास इस प्रस्ताव को ठुकराने का विकल्प व साहस ही न रहा हो। इससे साफ हैं कि किस प्रकार
कुरुवंश का आतंक उस वक्त के राजाओं में मौजूद था।
दो-यदि गांधारी व धृतराष्ट्र का यह संबंध सहज होता तो गांधारी का भाई शकुनि हस्तिनापुर
में डेरा न डालता और कुरुवंश के विनाश का कारण नहीं बनता। यहां शकुनि का अपनी बहन के
प्रति हुए अन्याय का प्रतिरोध निरंतर नजर आता है। दुर्योंधन को राजा बनाने के पीछे
भी कहीं न कही शकुनि की यही सोच काम करती नजर आती है। तीन-इस
संबंध में नारी की विवशता का दूसरा प्रमाण यह सामने आता हैं कि गांधारी अपनी आंखों
पर पट्टी बांध कर आजीवन नेत्रहीन की तरह जीवनयापन करती है। इसे पत्नी का पति के प्रति
समर्पण की संज्ञा देना वास्तविकता को नजरअंदाज करना होगा। इसे सिक्के के एक दूसरे
पहलू के रूप में यह संदेश देना भी कहा जा सकता है कि किस प्रकार बेमेल विवाह से किसी
दूसरे का जीवन अंधकारमय व नारकीय हो जाता है। नारी विरोधी मानसिकता के चलते गांधारी
के प्रतिरोध को सिरे से नकारकर पूरे महाभारत में इसे पत्नी का पति के लिए बलिदान के
रूप में ही महिमामंडित किया जाता है। इस अन्याय के लिए भीष्म व उस समय के समाज को
क्या स्त्री विरोधी मानसिकता के कलंक से मुक्त किया जा सकता है, यह प्रश्न आज भी उतना ही गंभीर व विचारणीय है, जितना
उस महाभारत काल में रहा होगा।
कुंतिभोज द्वारा आजोजित स्वयंवर में कुंति ने
पाण्डु को जयमाला पहना दी। यह बात स्वाभाविक महसूस होती है। लेकिन मामला यहीं
नहीं रुकता, यह भीष्म की स्त्री विरोधी
मानसिकता के साथ आगे बढ़ता है। ‘महात्मा भीष्म ने पाण्डु
का एक और विवाह करने का निश्चय किया,
अत: वे मंत्री, ब्राह्मण,
ऋषि, मुनि और चतुरंगिणी सेना के साथ मद्रराज की
राजधानी गए। उनके कहने पर शल्य ने प्रसन्न चित्त से अपनी यशस्विनी एवं साध्वी बहिन
माद्री उन्हें दे दी।’42
भीष्म द्वारा पांडु के दूसरे विवाह का निश्चय करना और पुरुषवादी सत्ता
के संवाहकों व अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ मद्रराज की राजधानी पर धावा बोलने का सीधा-सा अर्थ यही निकलता है कि यह सब राजा शल्य पर अपना दबाव बनाना था ताकि वह
माद्री का विवाह पांडु रोग से पीडि़त पांडु के साथ करने को तैयार हो जाए। इस दूसरे
विवाह को दादागिरी वाली पृष्ठभूमि के संदर्भ में देखे तो पांडु का कुंती के साथ विवाह
भी संदेह के घेरे से परे नहीं कहा जा सकता। यहां कुंती द्वारा बीमार पाडु का स्वयंवर
में वरण करना भी किसी दबाव का हिस्सा हो सकता है। यह अपने आप में बड़ा सवाल है कि
जब यह स्पष्ट था कि पाण्डु बीमार हैं फिर भीष्म ने उनके दूसरे विवाह की बात क्यूं
की। दूसरे, वह यह भी जानते थे कि अम्बिका और अम्बालिका के साथ
‘सात वर्ष तक विषय सेवन करते रहने के कारण भरी जवानी
में विचित्रवीर्य को क्षय हो गया और बहुत चिकित्सा करने पर भी वह चल बसा।’43 इसे भीष्म की कौन-सी समझदारी कहेंगे कि वह पुन: पांडु के दो-दो विवाह कराकर क्या उसे मौत के मुंह में नहीं धकेल रहे थे। ऐसे विवाहों में
पुरुष तो अपनी काम-वासनाओं का भोग करता है और असामयिक मुत्यु
को प्राप्त हो जाता है और बाद में वैधव्य की पीड़ा भोगने के लिए छोड़ जाता है बेचारी
मासूम स्त्री को। भीष्म और महाभारत के काल के समाज को यदि स्त्री विरोधी न कहें
तो क्या कहें?
इस संदर्भ में भीष्म द्वारा अस्वस्थ पांडु के
दो-दो विवाह कराना और व्यास द्वारा
अम्बिका व अम्बालिका से यौन संबंध बनवाने में सहयोग करना क्या भीष्म की किसी यौन
कुंठा की ओर इशारा नहीं करता। इस कुंठा को यदि पूरी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता
तो पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता क्योंकि तर्क की दृष्टि से यह भी एक तर्कयुक्त
नजरिया है, खैर...। यदि पांडु के जन्म
को स्वास्थ्य की कसौटी पर ठीक ठहराया जाता है तो स्वस्थ संतान की प्राप्ति के लिए
ऋषि व्यास द्वारा विदुर की मां के साथ शारीरिक संबंध को तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता।
लेकिन सिक्के का एक दूसरा पहलू यह भी है कि अम्बिका और अम्बालिका के साथ ऋषि व्यास
का शारीरिक सबंध बलात्कार की श्रेणी में आता है। क्या परंपरा व राज्य के वारिश की
पूर्ति के नाम पर किए गए इस कृत्य के लिए भीष्म, सत्यवती,
ऋषि व्यास व अन्य व्यक्तियों को निर्दोष ठहराया जा सकता है?
नारी अस्मिता के इस अन्यायपूर्ण मुद्दे पर गंभीरतापूर्वक विचार किया
जाए तो इस संबंध में दिए जाने वाले दोनों ही तर्क आधारहीन हो जाते हैं और दोनों का
उद्देश्य पितृसत्ता की क्रूरता के चलते नारी दोहन के अतिरिक्त कुछ और नहीं रह
जाता।
महाभारत में स्त्री अस्मिता के खिलवाड़ की इस
कड़ी में आगे कुंती के चरित्र पर विचार किया जा सकता है। शूरसेन की पुत्री पृथा (कुंती) थी उसने
उसे अपनी बुआ के नि:संतान पुत्र कुंतीभोज को दे दिया था और वह
वहीं उनकी पुत्री के रूप में रहती थी। यहां यह कहना जरूरी महसूस हो रहा है कि जो स्थिति
दुष्यंत-शकुंतला, शांतनु-सत्यवती, विचित्रवीर्य-अम्बिका
व अम्बालिका (गौरतलब है कि वह इन दोनों बहनों के साथ रह रहा
था क्योंकि चित्रांगत तो पहले ही मर गया था) के संबंधों को लेकर
थी, उससे बद्दतर स्थिति कुंती की और उससे बद्दतर द्रोपदी की कही
जा सकती है। कुंती से जुड़ा घटनाक्रम कुछ इस प्रकार है-राजा कुंतीभोज
के घर एक तेजस्वी ब्राह्मण (दुर्वासा) आता है और कहता है-‘राजन!
मैं आपके घर भिक्षा मांगने के लिए आया हूं। किंतु आपको या आपके सेवकों
को मेरा कोई अपराध नहीं करना होगा। यदि आपकी रुचि हो तो इस प्रकार मैं आपके यहां रहूंगा
और इच्छानुसार आता-जाता रहूंगा।’44 इसके उत्तर में राजा ने पृथा यानी कुंती
की शान में अनेक कशीदे काढे़ और कुंती से कहा-‘बेटी!
उन ब्राह्मण-देवता की परिचर्या का भार ही इस समय
तुझे सौंपा जा रहा है। तू नियमपूर्वक नित्यप्रति इनकी सेवा करती रहना। पुत्री!
मैं जानता हूं कि तेरा बचपन ही ब्राह्मणों के, गुरुजनों के, बंधुओं के, सेवकों
के, मित्र संबंधी और माताओं के तथा मेरे प्रति सब प्रकार आदरयुक्त
रहा है...यदि तू दर्प, दम्भ और अभिमान
छोड़कर इन वरदायक ब्राह्मण-देवता की सेवा करेगी तो अवश्य कल्याण
प्राप्त करेगी।’
कुंती भी सेवा का आश्वासन देती है और कहती है-‘ये चाहे सांयकाल में आवें, चाहे सबेरे आवें, चाहे रात में आवें और चाहे आधी रात के समय आवें, इन्हें
मैं किसी प्रकार कुपित होने का अवसर नहीं दूंगी।’45 दूसरे शब्दों में इसे आज की लिव-इन-रिलेशनशिप की संज्ञा देना शायद गलत नहीं होगा। गौरतलब
है कि इस प्रकार के जीवनयापन व बच्चे तक पैदा करने की मान्यता इसे आज मिली है। लेकिन
इस संदर्भ में उल्लेखनीय बात यह भी है कि यह संबंध पुरुष और महिला की आपसी पसंद,
समानता व सहयोग पर आधारित है, किसी द्वारा थोपा
हुआ नहीं होता। लेकिन कुंती ने इस दासता जैसी
लिव-इन- रिलेशनशिप को जिसमें न उम्र का
तालमेल था और न ही आपसी सहयोग व सूझबूझ से इसका कोई लेना-देना
ही था, को उस जमाने में स्वीकारा। ‘पृथा
(कुंती) ने शुद्ध मन से सेवा करके उस तपस्वी बाह्मण को पूर्णतया प्रसन्न कर लिया...कभी वे अनियत समय पर आते, कभी आते ही नहीं और कभी ऐसा
भोजन मांगते जिसका मिलना अत्यंत कठिन होता।...इस प्रकार एक वर्ष
पूरा हो जाने पर भी जब उन विप्रवर को पृथा का कोई दोष दिखाई नहीं दिया।...कहा वर मांग ले, जो इस लोक में मनुष्यों के लिए दुर्लभ
हैं। पृथा के मना करने पर भी उन्होंने एक मंत्र दिया और कहा कि इस मंत्र से तू जिस
देवता का आह्वान करेगी, वही तरे आधीन हो जाएगा। उसकी इच्छा हो
या न हो, इस मंत्र के प्रभाव से वह शांत होकर सेवक के समान तेरे
आगे विनीत हो जाएगा।’46
उपरोक्त घटनाक्रम पर जब हम विचार करते हैं तो यह
कई प्रश्न खड़े करता है। एक-यह ऋषि (दुर्वासा) एक ओर इच्छानुसार
आने-जाने की बात करता है और दूसरी ओर यह राजा से एक प्रकार से
एडवांस में सेवा का एग्रीमेंट और सेवकों से कोई अपराध न करने की शर्त रखता है,
क्यूं ? दो-राजा ने कुंती
को इस ऋषि की सेवा के लिए क्यूं चुना जबकि ऋषि की सेवा के लिए अन्य विश्वासपात्र
सेवक या सेवकों का समूह इस जिम्मेदारी को बखूबी निभा सकता था?
तीन-क्या कल्याण की जरूरत कुंती के अलावा राजा
के शाही खानदान और दरबारियों में अन्य किसी को नहीं थी?
चार-वर्षभर ऋषि के इस आवागमन के दौरान उसका संबंध
किसी अन्य से क्यों नहीं रहा? पांच-क्या
इस संबंध को सामान्य रूप में पति-पत्नी के संबध से तुलना नहीं
की जा सकती जहां पति प्रवासी जैसी स्थिति में होता है?
और अंत में सबसे अहम सवाल यह उठता है कि यह ऋषि कुंती को जबरन मंत्र
क्यूं देता है और इस मंत्र के चलते सारे देवता जो संभवत: इस
ऋषि के गुलाम नहीं है, कुंती के आधीन क्यूं हो जाएंगे?
इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने लिए महाभारत के इस
उद्धरण पर विचार करना अनिवार्य महसूस हो रहा है-‘एक दिन कुंती मंत्र के साथ सूर्य का आह्वान करती है
और वह उपस्थित हो जाता है और कहता है-‘भद्रे!
तेरे मंत्र की शक्ति से मैं बलात् से तेरे अधीन हो गया हूं, बता मैं क्या करूं? अब तू तो जो चाहेगी,
मैं वही करूंगा।।’ वह बिना प्रयोजन लौटने को मना
करते हुए कहता है-‘ सुंदरी!
तेरी ऐसी इच्छा थी कि सूर्य से मेरे पुत्र हो, वह लोक में अतुलित पराक्रमी हो और कवच तथा कुंडल धारण किए हो।’47 उसके लोकलाज के डर के कारण मना करने
पर वह फिर कहता है-‘भीरू तू बालिका है, इसलिए मैं तेरी खुशामद कर रहा हूं, किसी दूसरी स्त्री की मैं विनय नहीं करता। कुंती तू मुझे अपना शरीर दान कर
दे, इससे तुझे शांति मिलेगी।’48 यह प्रसंग स्पष्ट संकेत देता है कि
जो मंत्र ऋषि ने दिया था वह काम वासना की पूर्ति का मंत्र था। यह मंत्र के देने का
घटनाक्रम यह भी स्पष्ट संकेत देता है कि कुंती ने ऋषि की काम वासना की पूर्ति की
होगी तभी उसने काम वासना शांत करने का मंत्र कुंती को दिया होगा। ऐसे निष्कर्ष पर
पहुंचने की एक तर्कयुक्त वजह यह भी है कि यदि कोई किसी की धन-संपदा से मदद करता है तो उसके लिए दुआ करने वाला उसको धन-संपदा के भंडार भरे रहने की दुआ देता है। कोई किसी की भूख-प्यास मिटाने में मदद करता है तो लाभार्थी उसे अन्न के भंडार भरे रहने की
दुआ देता है, दीर्घायु होने की दुआ करता है, सुख-शांति की दुआ करता है ताकि वह अधिक से अधिक भूखे-प्यासे लोगों की मदद कर सके।
कुंती और उसके मंत्र के विषय में कहा गया है कि एक
बार उसने दुर्वासा ऋषि की बड़ी सेवा की। इस काल में किसी कन्या से ऋषि की सेवा
कराना अजीब लगता है। खैर यह जो कुछ भी था,
उसकी सेवा से जितेन्द्रीय ऋषि बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने पृथा को
एक मंत्र बताया और कहा कि ‘कल्याणी! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं।
तुम इस मंत्र से जिस देवता का आह्वान करोगी, उसी के कृपा प्रसाद
से तुम्हें पुत्र उत्पन्न होगा।’ दुर्वासा ऋषि की बात सुनकर पृथा (कुन्ती)
को बड़ा कुतूहल हुआ। उसने एकांत में जाकर भगवान सूर्य का आह्वान किया।
सूर्य देव ने आकर तत्काल गर्भस्थापन किया, जिससे उन्हीं के
समान तेजस्वी कवच और कुण्डल पहने एक सर्वांग सुंदर बालक उत्पन्न हुआ। कलंक से भयभीत
होकर कुंती ने उस बालक को छिपाकर नदी में बहा दिया।49
मौजूदा संदर्भ में ऋषि जिन देवताओं को आधीन व सेवक
होने की बात करते हैं इनका कुंती को किसी शारीरिक व मानसिक कष्ट से मुक्ति में
सहायक होने का कहीं कोई संदर्भ नहीं है और न ही पूरे महाभारत में ये कुंती को किसी
धन-धान्य व अन्य किसी प्रकार
से समृद्ध बनाने की कवायद ही करते हैं। हद तो तब हो जाती है जब कुंती के पति पांडु
किंदम ऋषि के श्राप के कारण अपनी पत्नी व किसी भी स्त्री से शारीरिक संबंध बनाने
से वंचित हो जाते हैं। (यदि वे ऐसा दुस्साहस करते हैं तो श्राप
के कारण उनकी मृत्यु हो जाएगी।) इसके चलते जब पांडु और कुंती
अपना वंश चलाने में असमर्थ हो जाते हैं। साफ है कि पाण्डु पुत्र उत्पन्न करने की
स्थिति में नहीं थे (किंदम के श्राप के कारण या अपने पाण्डु
रोग के कारण) ऐसे में पाण्डु कुंती से कहते हैं-‘प्रिये!
तुम पुत्र उत्पत्ति के लिए प्रयत्न करो।’50 साफ है कि यहां पाण्डु अवैध संतान
उत्पत्ति की फरमाइश कर रहे थे, जो किसी सभ्य व गैरतमंद व्यक्त्िा
के लिए शौभनीय नहीं हो सकता। इसके जवाब में कुंती कहती है-‘आर्यपुत्र!
जब मैं छोटी थी...मैंने उस समय दुर्वासा नामक ऋषि
को सेवा से प्रसन्न किया। उन्होंने मुझे एक मंत्र बतलाकर वर दिया कि ‘तुम
इस मंत्र से जिस देवता का आह्वान करोगी,
वह चाहे अथवा न चाहे तुम्हारे आधीन हो जाएगा।...कुंती से धर्मराज का आह्वान करने को कहा गया और वह सूर्य के समान चमकीले विमान
पर बैठकर कुंती के पास आए और कुंती ने उनसे पुत्र मांगा और ‘तदनन्तर
योगमूर्तिधारी धर्मराज से कुंती को गर्भ रहा और समय आने पर पुत्र उत्पन्न हुआ...युधिष्ठिर।’51
ऐसे ही वायुदेव व इन्द्र देव आए गर्भधारण हुआ और
क्रमश: भीम और अर्जुन का जन्म हुआ।
ऐसा ही माद्री के गर्भ से संतान पैदा होने के मामले में कुंती कहती है-‘बहिन!
तुम केवल एक बार किसी देवता का चिंतन करो। उससे तुम्हें अनुरूप पुत्र
की प्राप्ति होगी।’ माद्री ने अश्विनीकुमारों का चिंतन
किया। उसी समय अश्विनीकुमारों ने आकर नकुल और सहदेव को जुड़वा पैदा किया।’52 ऐसी स्थिति में भी ये देवता किसी काम
के सिद्ध नहीं होते। हां, ये सिर्फ एक काम में कुंती की मदद करते
हैं, वह है कि वे कुंती से अपने यौनाचार की बदौलत तथाकथित धर्मराज
युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन को अवश्य पैदा करते हैं। हैरत की बात
तो यह है कि स्वयं पांडु कुंती से ही नहीं अपनी दूसरी पत्नी माद्री से इसी मंत्र
के आह्वान से बच्चे पैदा कराने का आग्रह करते हैं। परिणामस्वरूप, इन तथाकथित देवताओं और माद्री के शारीरिक संबंधों से नकुल और सहदेव पैदा होते
हैं। इस घटनाक्रम से साफ है कि इस मंत्र के देने वाले ऋषि, कुंती
और मंत्र के आह्वान से उपस्थित होने वाले देवताओं की सारी कवायद सिर्फ यौन संबंधों
व काम वासना की पूर्ति की बदौलत बच्चे पैदा करने तक सीमित थी और इसके अतिरिक्त कुछ
नहीं। यह कोई आदर्श स्थिति नहीं थी। इस स्थिति की तुलना इक्कीसवीं सदी के तथाकथित
संत नारायण साई और बापू आसाराम के खिलाफ मुकद्दमों में सामने आए दुष्कर्मों से की
जा सकती है। ऐसे कुकर्मों का कभी भी महिमामंडन नहीं हो सकता। इनका खंडन व कठोर से कठोर
सजा हो सकती है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ और कभी नहीं।
यह सिक्के का एक पहलू था, यानी ऋषि व पुरूष पक्ष। इसके दूसरे
पक्ष कुंती यानी स्त्री पक्ष पर भी विचार
करना जरूरी है, तभी सत्यता व तथ्यों तक पहुंचा जा सकता है।
यहां कुंती का चरित्र भी संदेह के घेरे में शुरु से अंत तक रहता है। जैसे मंत्र के
कारण सूर्य देव की उपस्थिति व बिना कुंती से संबंध बनाए जाने (फल देने) की जिद के संदर्भ में कुंती कहती है-‘भगवन!
यदि ऐसी बात है और मुझसे आप
जो पुत्र उत्पन्न करें वह जन्म से ही उत्तम कवच और कुंडल पहने हुए हो तो मेरे साथ
आपका समागम हो सकता है। किंतु वह बालक पराक्रम, रूप, सत्व, ओज और धर्म से सम्पन्न होना चाहिए।’53 सूर्य के आश्वासन देने पर कुंती कहती
है-‘रश्मिमालिन्! आप जैसा कह रहे हैं,
यदि वैसा ही पुत्र मुझसे हो तो मैं बड़े प्रेम से आपके साथ सहवास करूंगी।’54 (और वह सब कुछ करती है और सूर्य देव
की कृपा से कन्या ही बनी रहती है जैसे द्रोपदी पांचों पांडवों के साथ विवाह के बाद
रोज कन्या बने रहने के कारण पांच दिन तक विवाह करती रहती है।)
कुंती के संबंध में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि
वह मंत्र जाप करने से क्या होने वाला है,
(देवता द्वारा शारीरिक संबंध बनाना) इसका अहसास
उसे था। इसके बावजूद कुंती इस मंत्र का उपयोग करती है। जाहिर है यह कामवासना शांत करने
के लिए ही किया गया होगा। यदि ऐसा नहीं था और जैसा वर के अनुसार उल्लेख किया गया है
कि ‘इस मंत्र से तू जिस देवता का आह्वान करेगी, वही तेरे आधीन हो जाएगा।’ यहां देवता कुंती के अधीन नहीं शारीरिक संबंध बनाने के लिए जिद करता है और
कुंती अपनी शर्तों के माध्यम से सिर्फ उत्तम कवच व कुंडल के साथ बालक पैदा होने की
शर्त रखती है और अपनी अस्मिता, अपने शरीर को तथाकथित देवता को
सोंप देती है। (इस संबंध में उल्लेखनीय सवाल यह भी है कि क्या
इन तथाकथित देवताओं के एक बार सहवास से ही संतान उत्पन्न हो जाती थी या यह सहवास
की प्रक्रिया तब तक चलती रहती थी जब तक गर्भ धारण की पुष्टि नहीं हो जाती थी। खैर...)
क्या किसी भी स्त्री द्वारा विवाह पूर्व अपनी अस्मिता व शरीर को किसी
गैर पुरुष को सौंपना व बच्चे पैदा करना तर्कसंगत कहा जा सकता है, संभवत: कभी नहीं। ऐसा कार्य देवताओं के साथ-साथ कुंती
के चरित्र को संदिग्ध बनाता है।
इतना ही नहीं यदि कुंती और पांडू ने सिर्फ अपने
वंश को आगे बढ़ाने के लिए इस मंत्र का उपयोग किया था तो फिर वंश चलाने के लिए
सिर्फ एक बार प्रयोग करने पर जब युधिष्ठिर पैदा हो गए थे तो फिर भीम और अर्जुन के
लिए मंत्र का प्रयोग क्यों किया गया। यही स्थिति माद्री द्वारा दो संतान पैदा
करने पर भी सवालिया निशान लगाती है। इस घटनाक्रम से तो यही निष्कर्ष निकलता है कि
इस तथाकथित मंत्र के प्रयोग के पीछे कामवासना की पूर्ति भी एक अहम वजह रही है। ऐसे
कृत्य को नैतिकता की कसौटी पर भी खरा नहीं माना जा सकता। कुंती द्वारा इसी मंत्र
के उपयोग से माद्री से बच्चे पैदा कराना क्या इन तथाकथित देवताओं की भूमिका पर
प्रश्न चिन्ह नहीं लगाता कि मंत्र से कुंती अपनी कामवासना शांत कर सकती थी अन्य
की नहीं। सवाल यह भी हो सकता है कि ये तथाकथित देवता थे या पुट्ठे पर मुहर लगे
सांड। मुझे इन तथाकथित देवताओं की स्थिति इक्कीसवीं सदी में उन भैंसों/सांडों से अधिक नहीं लगती जिनके स्वामी
कुछ पैसे लेकर अपने भैसों/सांडों को भैंस की प्रजनन की प्राकृतिक
जरूरत की पूर्ति के लिए छोड़ते हैं। क्या यह कहना अनुचित होगा कि महाभारत काल में
ये तथाकथित देवता भैसों/सांडों की स्थिति में थे और कुंती इनकी
स्वाभिमानी। आज यह कार्य पुरुष एक व्यवसाय के रूप में करते हैं, शायद महाभारत काल में कुंती जैसी महिलाएं यह कार्य मंत्र के माध्यम से धर्मार्थ
करती थी। यह महिलाओं के संदर्भ में कितना नैतिक और कितना तर्कसंगत था, मुझे लगता है कि इसका फैसला सुधिजन पाठकों पर छोड़ना श्रेयकर होगा।
अब द्रोपदी के बारे में विचार करें तो इसकी स्थिति
महाभारत की अन्य स्त्रियों की तुलना में ज्यादा खराब नजर आती है। महात्मा ऋषि
की कन्या (द्रौपदी) के जन्म के बारे में कहा गया है कि पूर्व जन्म में वह कुरूप थी और उससे कोई
शादी नहीं कर रहा था इसलिए उसने तपस्या की और शंकर ने उससे खुश होकर वर मांगने को
कहा, कन्या (द्रौपदी) ने कहा-‘मैं सर्वगुणयुक्त पति चाहती हूं।’ शंकर ने कहा-‘तुझे पांच भरतवंशी पति प्राप्त होंगे।’ कन्या (द्रौपदी) ने कहा-‘मैं
तो आपकी कृपा से एक ही पति चाहती हूं।’...-शंकर ने कहा-तूने पति प्राप्त करने के लिए मुझसे पांच बार प्रार्थना की है। मेरी बात अन्यथा
नहीं हो सकती। दूसरे जन्म में तुझे पांच ही पति प्राप्त होंगे।’55 किसी भी धर्म में चमत्कारों की बहुत
बड़ी भूमिका होती है लेकिन हिन्दू धर्मग्रंथों में ये चमत्कार सारी सीमाओं को लांघतें
नजर आते हैं। चिंता की बात तब होती है जब किसी भी अनैतिक, अव्यवहारिक
व तर्कहीन बात को धर्म की आड़ में हकीकत का जामा पहनाने की कोशिश ही नहीं की जाती बल्कि
इसे महिमामंडित करने में भी कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी जाती। महाभारत ऐसे कारनामों
का सबसे बड़ा दस्तावेज है। द्रौपदी का विवाह इसका सबसे विभत्स उदाहरण प्रस्तुत करता
है।
घटनाक्रम कुछ इस प्रकार है कि राजा द्रुपद के मन
में अपनी पुत्री द्रौपदी का विवाह अर्जुन से करने की तीव्र लालसा थी और ब्राह्मण
वेश धारण किए अर्जुन ने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा दी और ‘उन्होंने
पांच बाण उठाकर उनमें से एक लक्ष्य पर चलाया और वह यंत्र के छिद्र में होकर जमीन पर
गिर पड़ा।’56
...‘जब युधिष्ठिर ने देखा कि अर्जुन ने अपना काम कर लिया है, तब वे झट से नकुल और सहदेव को लेकर
वहां से अपने निवास स्थान पर चले गए। द्रौपदी हाथ में वरमाला लेकर प्रसन्नता के साथ
अर्जुन के पास गई और उसे उसके गले में डाल दिया।’57 लेकिन इस दौरान भीम और अर्जुन वहां
उठे बखेड़े को शांत करके ही उस कुम्हार के यहां गए जहां वे ठहरे हुए थे। इस घटनाक्र
में साफ है कि युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव के साथ अपने निवास स्थान यानी अपनी मां कुंती
के पास पहले ही चले गए थे। जाहिर है कि यह घटना साधारण नहीं थी और इसी स्वंयवर में
कर्ण को सूतपुत्र कहकर स्वयंवर में भाग लेने से मना किया गया था। दूसरे, जब द्रोपदी ने ब्राह्मण के वेश में अर्जुन को माला डाली थी तो अन्य क्षत्रियों
से अर्जुन और भीम का भयंकर युद्ध भी हुआ था। यही नहीं स्वयंवर में द्रोपदी को जीता
जाना भी दुलर्भ घटना थी। ऐसे में यह कैसे संभव हैं कि तथाकथित धर्मराज युधिष्ठिर ने
इस स्वयंवर और युद्ध के बारे में अपनी मां कुंती का न बताया हो।
यह महाभारत है और यहां द्रोपदी को पांच पतियों की पत्नी
को यथार्थ का जामा पहनाने के लिए यह अजीबोगरीब कुतर्क गढ़ा जाता है। ‘भीमसेन
और अर्जुन ने द्रौपदी के साथ कुम्हार के घर में प्रवेश करके अपनी माता से कहा कि ‘मां, हम लोग यह भिक्षा लाये हैं।’ माता कुंती उस समय घर के भीतर थीं। उन्होंने अपने पुत्रों और भिक्षा को देखे
बिना ही कह दिया कि ‘बेटा,
पांचों भाई मिलकर उसका उपभोग करो।’58 गौरतलब है कि महाभारत में बार-बार इसका वर्णन मिलता है कि मां कुंति अपने पांचों बेटों को अपने हाथों से
खाना परोसती थी और खाने में भीम की खुराक का विशेष ध्यान रखा जाता था। वहां भिक्षा
में लाई गई खाद्य सामग्री को स्वयं आपस में बांटने का कोई प्रचलन ही नहीं था। दूसरा
प्रश्न यह भी उठता है कि जब पहले युधिष्ठिर और नकुल और सहदेव तीनों आए थे और बाद में
अर्जुन और भीम द्रोपदी के साथ आए थे। फिर यह कैसे मान लिया जाए कि कुंती ने यह कह दिया
हो कि पांचों आपस में बांट लो जबकि तीन तो घर में पहले से ही मौजूद थे और बाद में युद्ध
से दो-चार होकर अर्जुन और भीम द्रोपदी के साथ ही आए थे। ऐसे में
यह कैसे संभव है कि कुंती यह कहे कि पांचों आपस में बांट लो। ऐसा भी नहीं है कि कुंती
अपने वचनों की पक्की और सत्य की प्रतीक थी। वह कर्ण के मामले में शुरु से अंत तक
उसके जन्म का रहस्य (पाप) छिपाती रहती
है और कर्ण को आजीवन उस अपमान को झेलने के लिए विवश करती है जो कर्ण ने नहीं,
स्वयं कुंती ने किया था। कर्ण के बारे में चुप्पी यानी
वह सारा झूठ ही तो बोलती रही । यदि कुंती में नैतिकता थी या वह सच्चाई की पक्षधर
थी तो उसने कर्ण को सूत पुत्र कहे जाने का खंडन क्यूं नहीं किया।
अब स्त्री अस्मिता को तार-तार करने वाला पाण्डवों और द्रोपदी
के विवाह से जुड़े ऐपीसोड के कुतर्कपूर्ण घटनाक्रम पर विचार किया जा सकता है। जब स्वयंवर
में अर्जुन ने द्रोपदी को हासिल कर लिया तो उनके विधिवत विवाह के संबंध में युधिष्ठिर
ने अर्जुन से कहा-‘भाई! तुमने मर्यादा के अनुसार द्रौपदी
को प्राप्त किया है। अब विधिपूर्वक अग्नि प्रज्वलित करके उसका पाणीग्रहण करो।’ अर्जुन ने कहा-‘ भाई जी!
आप मुझे अधर्म का भागी मत बनाइए। सत्पुरुषों ने कभी ऐसा आचरण नहीं किया
है। पहले आप, फिर भीमसेन, तदन्तर मैं विवाह
करूं। फिर मेरे बाद नकुल और सहदेव का विवाह हो।...द्रौपदी के
सौंदर्य, माधुर्य और सौशील्य से मुग्ध होकर पांचों भाई एक दूसरे
की ओर देखने लगे। उनके मन में द्रौपदी बस गई।
युधिष्ठिर ने अपने भाइयों की मुखाकृति से उनके मन का भाव जानकर और महर्षि व्यास
के वचनों का स्मरण करके निश्चयपूर्वक कहा कि ‘द्रौपदी
हम सब भाइयों की पत्नी होगी।’59
यहां युधिष्ठिर ने अपने भाइयों की मुखाकृति और मन का भाव यानी उन पांचो
भाइयों का द्रोपदी के सौंदर्य, माधुर्य और सौशील्य से मुग्ध
होने की पूर्ति के लिए जिसमें खुद युधिष्ठिर की द्रोपदी के प्रति आशक्ति शामिल थी,
को ही अमली जामा पहनाने के लिए महर्षि व्यास के वचनों की आड़ में द्रोपदी
को बलि का बकरा बनाया। स्पष्ट है कि यहां तथाकथित धर्म के प्रतीक युधिष्ठिर ने अधर्म
के मार्ग को कुतर्क के सहारे अपनी व अपने भाइयों की कामुता व सामुहिक वासना की पूर्ति
को तरजीह दी। द्रोपदी की मानसिक स्थिति क्या होगी, उसकी अस्मिता
का क्या हश्र होगा और इसका नारी जाति पर क्या प्रभाव होगा, इन प्रश्नों पर विचार करने के लिए शायद इन इतिहास के महानायकों के पास समय
ही नहीं था।
यदि शादि के संबंध में यह ज्येष्ठता व कनिष्ठिता
का प्रश्न इतना ही प्रभावी था तो स्वयंवर में सिर्फ युधिष्ठिर को ही हिस्सा
लेना चाहिए था और उसकी असफलता की स्थिति में छोटों को स्वयंवर में अपनी शादी के
लिए किसी प्रकार का जोर आजमाने की कोशिश ही नहीं करनी चाहिए थी क्योंकि बड़े भाई
के रहते छोटे को अपने विवाह के लिए किसी स्वयंवर में जोर आजमाना अनैतिक ही कहा जा
सकता है। जहां तक द्रोपदी के स्वयंवर का मामला है, इस स्वयंवर में युधिष्ठिर को अर्जुन को प्रतियोगी बनने की
अनुमति ही नहीं देनी चाहिए थी। इस संदर्भ में सिक्के का एक दूसरा पहलू यही भी है कि
अर्जुन को स्वयं ही नैतिकता के आधार पर इस स्वयंवर में कूदना ही नहीं चाहिए था। साफ
है कि यह ज्येष्ठता व कनिष्ठता का सारा मामला कुतर्क पर आधारित है, किसी सत्यता,
नैतिकता या मर्यादाओं पर आधारित नहीं। वैसे भी इस कुरु वंश के इतिहास
के आधार पर द्रोपदी के संदर्भ में अर्जुन और युधिष्ठिर दोनों के ज्येष्ठता व कनिष्ठता
के आदर्श को परखने की कोशिश करें तो इनका सारा आदर्श हास्यस्पद होकर रह जाता है।
यह मामला पांडवों के पितामह को कठगरे में लाकर खड़ा कर देता है। भीष्म अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका
को अपने पिता शांतनु और सौतेली माता सत्यवती
की संतान विचित्रवीर्य और चित्रांगद (भीष्म के छोटे व सौतेले
भाई) के लिए बलपूर्वक जीत कर लाया था। ठीक ऐसी ही स्थिति माद्री
और गंधारी के क्रमश: पांडु और धृतराष्ट्र की पत्नी बनने के
संदर्भ में दिखलाई पड़ती है। इतना ही नहीं, इससे भी शर्मनाक घटना
भीष्म के सौतेले भाई तथाकथित ऋषि व्यास द्वारा अपने छोटे भाइयों की पत्नीयों अम्बिका
और अम्बालिका से पांडु और धृतराष्ट्र को पैदा करने के संदर्भ में इतिहास के पन्नों
में दर्ज है। विदुर की मां से शारीरिक संबंध और विदुर का जनम एक अन्य शर्मनाक
घटना है। कुंती का विवाह कैसे...। यहां विवाह के मामले में वरिष्ठता
और कनिष्ठता जैसे किसी आदर्श की झलक कहीं नहीं दिखलाई पड़ती। मुझे महाभारत में स्त्रिया
किसी नैतिक मूल्यों की परीधि से परे मात्र भोग की वस्तु नजर आती हैं।
इस वरिष्ठता और कनिष्ठता के आदर्श की पड़ताल के
लिए हमें भीम और हिडि़म्बा के ऐपीसोड पर विचार करना पड़ेगा। प्रश्न उठता है कि
हिडि़म्बा के संदर्भ में भीम को कैसे हिडि़म्बा को भोगने व बच्चा पैदा करने की
अनुमति कुंति और युधिष्ठिर ने कैसे दे दी थी। ऐसा करके ये कौन से धर्म का पालन कर
रहे थे। यदि स्त्री को यहां संपत्ति ही समझा जाता है तो शायद ऐसा ही क्रम बनता
है। लेकिन जब सारे पाण्डवों के जन्म ही संदिग्ध पद्धति पर आधारित हैं तो इनके
विवाह व आने वाली संतान के संबंध में कहना ही क्या। लेकिन चूंकि हमारा संबंध स्त्री
की स्थिति को लेकर है तो कहा जा सकता है कि वहां स्त्री की स्थिति बहुत ही दयनीय
रही है। जहां तक द्रोपदी की खूबसूरती और सारे पांडवों का उसकी ओर आकर्षित होने का
सवाल है तो ये अपने कुल की परंपरा ही निभाते नजर आते हैं जहां नारी के लिए सुचिता
का कोई पैमाना ही नहीं बचता। यहां शान्तनु सत्यवती की ओर आकर्षित होते हैं जिनसे
पहले ही व्यास जैसी संतान मौजूद है। विचित्रवीर्य की मृत्यु का कारण भी अम्बिका
व अम्बालिका के प्रति उसका भोग-विलास ही जिम्मेदार है। धृतराष्ट्र गाधारी के गर्भवती होने की स्थिति में
अपनी सेवा में नियुक्त वैश्य कन्या से ही युयुत्सु जैसी संतान पैदा कर डालता है।
पांडु के चलते वही स्थिति कुंति और माद्री की बनती नजर आती है जहां उन्हें अस्वाभाविक
तरीके से बच्चे पैदा करने पड़ते हैं।
भीम और हिडि़म्बा के घटनाक्रम पर जब हम आगे विचार
करने करते हैं तो स्थितियां बड़ी अजीबोगरीब पाते हैं। जैसे- जब भीम हिडि़म्बासुर राक्षस को मार
देता है, तब उसकी बहिन हिडि़म्बा कुंती से कहती है-‘ आर्ये! आप जानती हैं कि स्त्रियों को कामदेव
की पीड़ा कितनी दुस्सह होती है। मैं आपके पुत्र के कारण काफी देर से व्यथित हो रही
हूं। अब मुझे सुख मिलना चाहिए। मैंने अपने सगे-संबंधी,
कुटुम्बी और धर्म को तिलांजली देकर आपके पुत्र को पति के रूप में वरण
किया है।’60
बाकी के समर्थन के अनुसार ‘प्रतिदिन सूर्यास्त पूर्व तक तुम पवित्र होकर भीमसेन के साथ सेवा में
रह सकती हो। भीमसेन दिनभर तम्हारे साथ रहेंगे,
सांय होते ही तुम इन्हें हमारे पास पहुंचा देना। इस पर भीम आगे कहता
है-‘मेरी एक प्रतिज्ञा है। जब तक पुत्र नहीं होगा, तभी तक मैं तुम्हारे साथ जाया करूंगा,
पुत्र हो जाने पर नहीं।’61
गौरतलब है कि हिडिंबा ने भीम का वरण किया और द्रोपदी ने अर्जुन का,
फिर यहां हिडि़ंबा के संबंध में मानदंड कुछ और द्रौपदी के संबंध में
कुछ और। क्या भीम का सारे पांडवों से पहले विवाह करना और बाप बनना तर्कसंगत कहा जा
सकता है और उसका हिडिंबा के प्रति जो रवैया सिर्फ बच्चा पैदा करने तक सीमित होना कौन-सी परंपरा का निर्वाह करता है। क्या यह नारी अस्मिता व सशक्तिकरण की दिशा
में कुछ मदद करता है। ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो महाभारत में स्त्री के प्रति घोर नकारात्मक
तस्वीर प्रस्तुत करते हैं।
खैर,
अब कुरु वंशियों व पांडवों से हटकर इस घटना को यदि हम राजा द्रुपद के
संदर्भ में देखते हैं तो स्थिति काफी चिंताजनक है। द्रुपद युधिष्ठिर से कहते हैं-‘युधिष्ठिर!
अब तुम अर्जुन को आज्ञा दो कि वे विधिपूर्वक द्रौपदी का पाणीग्रहण करें।’ युधिष्ठिर ने कहा-‘राजन! विवाह तो मुझे भी करना ही है।’ द्रुपद बोले-‘यह तो बड़ी अच्छी बात है, तुम्ही मेरी कन्या का पाणीग्रहण
करो।’ युधिष्ठिर ने कहा-‘राजन!
आपकी राजकुमारी हम सबकी पटरानी होगी। हमारी माताजी ऐसी ही आज्ञा दे चुकी
हैं।’62
इस संदर्भ में गौरतलब यह भी है कि यहां स्वयंवर के नियम चलने थे या
माता के, यह विचारणीय बिदु है। लेकिन यह महाभारत है, यहां सब चलता है। दूसरे, यह कितना अजीब प्रकरण है कि
अर्जुन से पहले युधिष्ठिर पाणीग्रहण के लिए तैयार है और राजा द्रुपद का विवेक देखने
लायक है कि वह युधिष्ठिर के साथ ही अपनी पुत्री का पाणीग्रहण करने की पेशकश कर डालता
है। ऐसी सोच के चलते स्वयंवर जैसी तथाकथित स्त्री के अधिकारों के महिमामंडन की वकालत
अपने आप ही अर्थहीन हो जाती है। जिस शौर्य को द्रोपदी के विवाह का पैमाना बनाया जाता
है, इस सारी कवायद में उसका तो कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। एक
सवाल अर्जुन के विवेक पर भी उठना लाजमी है। वह यह है- अर्जुन
द्वारा द्रौपदी को स्वंयवर में हासिल करने के पीछे क्या उसे भाइयों में दान देना
या आपस में बांटना था। यही स्थिति भीष्म की नजर आती है। एक ओर वह शाल्य नरेश की तीनों
बेटियों को स्वयंवर से जीत कर लाते हैं और विचित्रवीर्य को भेंट करता है और अपने आप
ब्रह्मचर्य और भीष्म प्रतिज्ञाधारी बना रहते हैं। भीष्म के ऐसे कार्य क्या नारी
जाति से अपनी प्रतिज्ञा की ऐवज में प्रतिशोध तो नहीं था, इस सवाल
को, यदि पाठक संदेह की कसौटी पर परखें तो पूरी तरह निर्मूल नहीं
कहा जा सकता।
यदि द्रोपदी विवाह के उपरोक्त प्रकरण का संक्षिप्त
रूप में विश्लेषण करें तो साफ है कि स्त्री यहां सिर्फ उपभोग की वस्तु है और
उसका कोई वजूद ही नहीं है। यहां द्रोपदी की शादि के संबंध में युधिष्ठिर, अर्जुन, द्रुपद
और कुंती सब बोलते हैं लेकिन द्रौपदी जिसकी शादि विवाद का मुद्दा बना, के किसी प्रकार
बोलने का भी कोई स्थान नहीं है। यहां स्वयंवर का अर्थ ही खत्म हो जाता है। जीते
कोई और भोगे कोई? यहां भीष्म एक प्रकार से अपने पिता
के लिए सत्यवती को लाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। यही भीष्म विचित्रवीर्य के लिए
अम्बा, अम्बिका व अम्बालिका को जबरन काशी नरेश के यहां से लाता
है। यही भीष्म सत्यवती और पाराशर पुत्र व्यास से अम्बिका और अम्बालिका से बच्चे
पैदा कराते हैं। यही भीष्म पीलियाग्रस्त पांडु के लिए कुंती और माद्री को लाते हैं
और यही भीष्म नेत्रहीन धृतराष्ट्र के लिए गांधारी लाते हैं। संभवत: इसी कुरु वंश की परंपरा का निर्वाह भीष्म की अनुपस्थिति में युधिष्ठिर,
कुंती और अर्जुन द्रौपदी के संदर्भ में करते नजर आते हैं।
स्त्री अस्मिता को तार-तार करने की अति तो तब होती है जब नारद
के परामर्श के अनुसार द्रौपदी को भोगने व उसे भोगने को लेकर पैदा होने वाले झगड़ों
से बचने के लिए नियम पाण्डवों ने तय किए और नारद के सामने प्रतिज्ञा की कि -‘एक
नियमित समय तक हर एक भाई के पास द्रौपदी रहेगी। जब एक भाई द्रौपदी के साथ एकांत में
होगा, तब दूसरा भाई वहां नहीं जाएगा।
यदि कोई भाई वहां जाकर द्रौपदी के एकांतवास को देख लेगा तो उसे ब्रह्मचारी होकर बारह
वर्ष तक वन में रहना पड़ेगा।’63 यह नियम द्रौपदी यानी स्त्री को पशुओं
से भी बद्तर स्थिति में पहुंचा देता है। क्योंकि पशुओं में भी कामवासना जागने का एक
समय होता है और उसके शांत होने के उपरांत एक निश्चित अवधि के लिए पशु (नर व मादा) एक दूसरे के प्रति संभोग के लिए तत्पर नहीं
होते। लेकिन यहां पांडवों ने तो द्रौपदी को मात्र भोग की वस्तु बनाकर ही रख दिया।
वह चाहे न चाहे उसे तो अपने पतियों को संतुष्ट करना होगा। एक से मुक्ति मिले दो दूसरा,
दूसरे से मुक्ति मिले तो तीसरा....यह ऐसा चक्र
था जो कभी समाप्त नहीं होता। साफ है कि जब द्रौपदी पांचवे पति यानी सहदेव से मुक्त
होगी तो उसे फिर अपने पहले पति के पास उसी भोग की दुनिया में लौटना पड़ता था। यहां
पुरुषों के लिए तो विराम व विश्राम था लेकिन द्रौपदी के लिए उपरोक्त नियमों के अनुसार
कोई विराम व विश्राम नहीं था।
इस नियम के चलते जिस व्यक्ति यानी युधिष्ठिर ने
सबसे पहले द्रौपदी को भोगा या एक निश्चित अवधि के लिए निरंतर भोगता रहता था और
संभव है कि उसने उसे गर्भधारण करने की स्थिति में भी पहुंचा दिया होगा। वैसे भी महाभारत
में इसका स्पष्ट उल्लेख है-‘द्रौपदी
के गर्भ से भी पांचों पाण्डवों द्वारा एक-एक वर्ष के अंतर पर पांच पुत्र उत्पन्न हुए।’64 ऐसे में पहले पति यानी युधिष्ठिर ने
तो उसके कोमार्य से लेकर मां बनने तक उसका पूरा भोग (दाम्पत्य
जीवन का भोग) किया और बाद वालों के लिए क्या सिर्फ गर्भवती द्रौपदी
मिली थी और अंतिम पांचवे पांडव यानी सहदेव तक पहुंचते-पहुंचते
तो वह कई बच्चों की मां बन चुकी होगी। ऐसे में उसके लिए द्रौपदी का पति होने या न
होने का अर्थ ही क्या रह जाता है। इस व्यवस्था के अनुसार सच्चे अर्थों में द्रौपदी
का भोग एक पत्नी के रूप में तो युधिष्ठिर ने ही किया और बाकि के लिए पति-पत्नी व द्रौपदी की सुचिता जैसा कुछ बचा ही नहीं था। भारत के ही क्या, मुझे
तो लगता है कि विश्व इतिहास में भी ऐसा उदाहरण देखने को नहीं मिलेगा जैसा महाभारत
के इतिहास में एक स्त्री पांच-पांच पतियों के साथ वैधानिक रूप
से पत्नी का रिश्ता रखती है।
जहां तक इस अवधि विभाजन के नियम का सवाल है, एक कालचक्र पूरा होने के बाद यानी
भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव के साथ दाम्पत्य
जीवन (?) निर्वाह करने के बाद द्रौपदी का पुन:
युधिष्ठिर के पास आकर पूरे कालचक्र का निर्वाह करना इन तथाकथित धर्मनिष्ठ
व शूरवीरों के लिए और स्वयं द्रौपदी के लिए कितना ग्लानियुक्त रहा होगा,
इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। यदि इन्हें कोई ग्लानि नहीं थी और
ये अपने पूरे जीवनकाल में नारद के समक्ष द्रौपदी के भोग के नियम पालन की प्रतिज्ञा
का निर्वाह करते रहे तो यह स्थिति पशुओं से भी गई-बीती थी और
ऐसे कारनामों पर कोई भी सभ्य समाज व व्यक्ति फख्र नहीं कर सकता। लेकिन भारत में
ऐसा आसानी से संभव हो रहा है।
इस व्यवस्था में शुरु से अंत तक द्रौपदी की अपनी
इच्छा के लिए कोई स्थान नहीं दिखलाई पड़ता। जब अर्जुन ने उसे स्वयवर में जीता
था तो वह यह क्यूं नहीं कह सकी कि वह सिर्फ अर्जुन की पत्नी बनकर रहेगी, किसी अन्य की नहीं क्योंकि उसी ने
उसे स्वयंवर में जीता था, किसी और ने नहीं। वैसे भी किसी और
की उसे जीतने की औकात ही नहीं थी फिर उसे पत्नी बनाने का अधिकार अन्य किसी को कैसे
दिया जा सकता था। नारद के सामने पांडवों द्वारा की गई प्रतिज्ञा के अनुसार द्रौपदी
के लिए ऐसी भी कोई व्यवस्था नहीं थी कि वह कह सके कि वह प्रतीक्षारत प्रत्याक्षी
की अपेक्षा अमुक पांडव के साथ अपना अमुक समय बिताना चाहती है। कर्ण द्रौपदी को राजसभा
में लाने के संदर्भ में कहता है कि ‘देवताओं ने स्त्री के
लिए एक ही पति का विधान किया है। द्रौपदी पांच पतियों की स्त्री होने के कारण निस्संदेह
वैश्या है।’65
निस्संदेह महाभारत के पुरुष प्रधान समाज में द्रौपदी की स्थिति वैश्यालयों
में अपनी आजीविका के लिए मजबूर स्त्री से भी बद्तर नजर आती है।
अर्जुन के पक्ष पर विचार करें तो अर्जुन को स्वयं
मुखर होकर कहना चाहिए था कि स्त्री कोई आपस में सरकारी विभागों की तरह प्रोमोशन व
अन्य लाभ देने के लिए सीनीयर्टी व जूनियर्टी के हिसाब से बांटने व भोगने की वस्तु
नहीं है। उसे यह भी कह देना चाहिए था कि उसी ने स्वयंवर में द्रौपदी को जीता है
और वही द्रौपदी का पति होने का अधिकारी है। द्रुपद यानी उसके मायके के स्तर पर भी
पूरी तरह द्रौपदी के साथ घोर अन्याय हुआ है। इस पूरी प्रक्रिया में पुरुषों के
अधिकारों के तहत ही द्रौपदी को बलि का बकरा बनाया गया। इस पूरी व्यवस्था में स्त्री
के नजरिए, उसके हित, उसकी इच्छा और उसके भविष्य के सवालों की बेरहमी से हत्या की गई है। महाभारत
में स्त्री पक्ष की कहीं भी कोई गंभीर चर्चा नहीं है, उसे व्यवस्था
की खातिर सिर्फ भोग की वस्तु व बच्चे पैदा करने का साधन मात्र बनाकर हमेशा हलाल किया
गया है।
कितना अजीब है कि महाभारत का पूरा सिस्टम ही स्त्री
विरोधी है। सदैव यही प्रचारित किया जाता है कि दुर्योधन ने द्रोपदी का चीर हरण
किया। कौरवों की सभा में द्रोपदी का चीर हरण हुआ। बार-बार सिर्फ कौरवों की सभा को ही दोष
दिया जाता है। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि द्रोपदी का चीरहरण तो लगातार होता रहा। पहली
बार राजा द्रुपद ने जब उसका विवाह पांचों पांडवों से किया तब उसका चीर हरण हुआ। जब
युधिष्ठिर समेत सभी ने द्रोपदी को अपनी कामवासना के चलते पांचों की पत्नी बनाने का
तानाबाना बुना और उसे अंजाम दिया गया, तब द्रोपदी का चीर हरण
हुआ। उसका चीर हरण कुंती ने तब किया जब उसे पांचों पांडवों में आपस में बांटने और इसे
अमलीजामा पहनाने का षडयंत्र किया। इसके साथ ही व्यास और नारद का इस पूरी प्रक्रिया
को कुतर्कों के दम पर द्रोपदी पर थोपा जाना द्रोपदी के चीरहरण नहीं तो और क्या है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि महाभारत में नैतिकता, धर्म और व्यवस्था
के ठेकेदारों ने मिलकर सिर्फ द्रोपदी का ही चीरहरण नहीं किया बल्कि पूरी नारी जाति
का चीर हरण किया है।
अब कौरवों की सभा में द्रोपदी के चीरहरण के प्रसंग
पर विचार किया जा सकता है। सबसे पहले द्रोपदी का चीरहरण तथाकथित धर्मराज युधिष्ठिर
ने किया था। द्रोपदी को दांव पर लगाने से पहले युधिष्ठिर कहते हैं-‘हां,
उसी सर्वांगसुंदरी लावण्यमयी द्रौपदी को मैं दांव पर रख रहा हूं,
यद्यपि ऐसा करते समय मुझे महान कष्ट हो रहा है।’66 यहां युधिष्ठिर द्रोपदी को दांव पर
लगाकर द्रोपदी का चीरहरण पहले स्वयं करते हैं। इस प्रसंग में प्रश्न यह भी उठता है
कि यदि युधिष्ठिर ने स्वयं द्रोपदी को स्वयंवर में जीता होता तो क्या वो द्रोपदी
को जुएं में दांव पर लगाने का साहस करते, शायद नहीं। इसके उपरांत
सभा में उपस्थित अन्य पांडव युधिष्ठिर को रोकने की अपेक्षा चुप्पी साधे बैठे रहते
हैं और तमाशा देखते रहते हैं। इसे भी सभा में उपस्थित पांडवों द्वारा द्रोपदी के चीरहरण
के रूप में देखा जा सकता है। पांडवों का चुप रहना एक प्रश्न खड़ा करता है कि शायद
द्रोपदी पांडवों की एक प्रकार से सामूहिक सम्पत्ति थी इसीलिए एक दूसरे का मुंह ताकते
रहे और किसी ने इसका पुरजोर विरोध नहीं किया। जहां तक अर्जुन का सवाल है, जैसा कि मैंने पहले कहा अर्जुन इस बंटवारे की व्यवस्था से पहले ही संतुष्ट
नही थे, संभवत: इसी लिए उसने चुप्पी साधी
हो।
खैर,
कारण कोई भी रहा हो लेकिन इतना तय है कि पांडवों की ओर से किसी प्रकार
प्रतिरोध न होना पांडवों का चीरहरण की प्रक्रिया का हिस्सा ही माना जाना चाहिए न कि
विवशता का। वैसे भी कौरव-पांडव युद्ध के दौरान कौरवों के साथ-साथ पांडवों की ओर से कोई नैतिकता व ईमानदारी का पालन नहीं किया गया। यदि यही
उनका चरित्र था तो उनके द्वारा पहले ही अनैतिक व षडयंत्रकारी होकर द्रोपदी के चीरहरण
को हर कीमत पर रोका चाहिए था। वजह चाहे कुछ भी रही हों लेकिन इतना तय है कि इस घटनाक्रम
में नारी अस्मिता के साथ सामूहिक रूप से खिलवाड़ किया गया है। इसका मतलब यह कतई नहीं
है कि जो दुशासन ने किया और जो कौरवों की सभा में द्रोपदी के साथ हुआ वह न्यायसंगत
था, बिल्कुल नहीं। इस संबंध में मेरा मानना इतना ही है कि जब
हम दुशासन के स्त्री विरोधी घिनौने कारनामों पर अपनी राय बनाएं या जाहिर करें,
उस वक्त द्रोपदी और पूरी नारी
जाति के चीरहरण करने वाले समाज के ठेकेदारों के साथ भी कोई रियायत नहीं होनी चाहिए।
यह बड़ा सवाल है और मैं नहीं चाहता कि यह महत्वपूर्ण सवाल अनुत्तरित रहे।
पुन:
नारद द्वारा स्त्री भोग के नियम पर लौटना अनिवार्य महसूस हो रहा है।
यह एक अलग प्रकार की सच्चाई को बयान करता है। इस नियम को भंग करने का एक प्रकरण महाभारत
में दिखाया गया है। प्रकरण कुछ इस प्रकार है कि लुटेरे ब्राह्मण की गाय ले जा रहे हैं
और अर्जुन के हथियार उसी कक्ष में हैं जहां द्रौपदी और युधिष्ठिर एकांतवास में बैठे
हैं। ‘एक ओर कौटुम्बिक नियम, दूसरी ओर ब्राह्मण की पुकार।’ अर्जुन उस कक्ष में चले जाते हैं और युधिष्ठिर की आज्ञा से धनुष उठा लाते हैं
और गायों को छुड़ा लाते हैं और लौटकर स्वयं युधिष्ठिर से कहते हैं-‘भाईजी!
मैंने आपके एकांतगृह में जाकर प्रतिज्ञा तोड़ी है। इसलिए मुझे बारह वर्ष
तक वनवास करने की आज्ञा दीजिए।’67 युधिष्ठिर इसके लिए मना करते हुए कहते
हैं-‘बड़ा भाई स्त्री के साथ बैठा हो तो वहां छोटे भाई
का जाना अपराध नहीं है। छोटा भाई स्त्री के साथ बैठा हो तो वहां बड़े भाई को नहीं
जाना चाहिए।’68
यह तर्क बड़ा अजीब और हास्यस्पद है कि जिस कक्ष
में युधिष्ठिर और द्रौपदी थे, उसी में अर्जुन का धनुष रखा था। वहां स्थिति ऐसी तो थी नहीं कि वे किसी री-सैट्ल्मैंट जैसी कालोनी में रह रहे थे कि उसी कक्ष में बरतन-भांडे, उसी में सोना व उठना-बैठना
और रोजी-रोटी कमाने के औजार भी। यह तर्क अपने आप ही खारिज हो
जाता है जब हम महाभारत में यह उद्धरण देखते है-‘भगवान
श्रीकृष्ण सात्यकि को साथ लेकर अर्जुन महल में चले गए।’69 यानी अर्जुन का अलग भवन था और जाहिर
है कि अर्जुन का था तो अन्य का भी अवश्य होगा। साफ है कि सारे पांडवों के अलग-अलग भवन थे। ऐसे में मुझे लगता है कि इसे अर्जुन द्वारा युधिष्ठिर के एकांतवास
में प्रवेश के प्रकरण को अर्जुन के विरोध के रूप में देखा जाना चाहिए। विरोध यह कि
वह अपनी स्वयंवर में जीती गई पत्नी को किसी से साझा नहीं करना चाहते थे। वैसे भी
विश्वसनीयता की कसौटी पर तो यह बात खरी उतरती नजर आती है। लेकिन गौरतलब है कि किसी
भी स्थिति में अर्जुन की यह बगावत द्रौपदी (स्त्री) के हितों का पोषण करती नजर नहीं आती। अर्जुन का युधिष्ठिर के एकांतवास में
जाना सीधा संकेत देता है कि वह क्यों स्वीकार करे कि शादि के लिए सारे पापड़ ही नहीं
बेले बल्कि जानमाल का जोखिम भी उठाए रामलाल और सुहागरात मनाए भाई श्यामलाल और दूसरे
कई लाल। इस घटनाक्रम में तो मामला सिर्फ सुहागरात तक का नहीं था बल्कि एक निश्चित अवधि
तक के लिए अपनी पत्नी को दूसरे को भोगने देना और बच्चे तक पैदा करने देने का था।
इस स्थिति को कोई भी गैरतमंद व स्वाभीमानी व्यक्ति कैसे स्वीकार कर सकता है। जाहिर
है कि अर्जुन का भी यह अपने विरोध का अपना अंदाज था।
दूसरे,
युधिष्ठिर की बात तब तर्कसंगत हो सकती है जब बड़ा भाई (अपनी पत्नी)
मां तुल्य भाभी के साथ बैठा हो या छोटा भाई अपनी पत्नी जो बड़े भाई के लिए बेटी जैसी
होती है। यहां मामला ऐसा नहीं है। यहां अर्जुन द्वारा स्वयंवर में जीती गई उसकी स्वयं
की पत्नी द्रौपदी का सवाल है। यहां सवाल उस द्रोपदी का है जिसे अर्जुन को स्वेच्छा
से या अनिच्छा से युधिष्ठिर समेत अपने अन्य भाइयों के साथ बांटना था या इसके लिए
विवश किया गया था जिसमें भीम की बारी भी उससे पहले थी। क्योंकि भीम इस बंटवारे के
वरिष्ठिता क्रम में दूसरे नम्बर पर था और अर्जुन तीसरे पर। यहां अर्जुन का बारह वर्ष
के लिए बनवास जाना द्रौपदी के लिए कम स्वयं के लिए अधिक महसूस होता है। वह अपनी पत्नी
को किसी दूसरे, भले ही वह उसका भाई ही क्यूं न हो, और भले ही वह प्रतिज्ञा के नियम के अनुसार द्रौपदी को भोग रहा था, संभवत: अर्जुन को यह सब स्वीकार नहीं हुआ और वह बारह
वर्ष के लिए वनवास चला गया और यहां उसे ब्रह्मचर्य का पालन करना था।
यहां नागकन्या उलूपी की कहानी अर्जुन के
ब्रह्मचर्य पालन में बाधा नहीं थी क्योंकि वह अन्य लोक था। इसी वनवास के दौरान
अर्जुन राजा चित्रवाहन की कन्या चित्रांगदा पर आशक्त हो गए, उससे विवाह किया और राजा से शर्त के
अनुसार चित्रांगदा से एक पुत्र (बभ्रुवाहन) भी पैदा किया। इसी बारह वर्ष की अवधि के दौरान अर्जुन का कृष्ण की बहन सुभद्रा
की ओर आशक्ति का प्रकरण भी होता है। इस प्रकरण में कृष्ण अपनी बहन सुभद्रा (स्त्री) के प्रति अर्जुन की आशक्ति को भांपते हुए कृष्ण
अर्जुन से क्षत्रियों के संबंध में कहता है-‘क्षत्रियों के यहां स्वंयवर की चाल है। परंतु यह निश्चय
नहीं कि सुभद्रा तुम्हें स्वयंवर में वरेगी या नहीं। क्योंकि सबकी रुचि अलग-अलग होती है। क्षत्रियों में बलपूर्वक
हरकर व्याह करने की भी नीति है।’70 अर्जुन ने सुभद्रा के संदर्भ में ऐसा
ही किया था।71
गौरतलब है कि यह वही काल है जब अर्जुन बारह वर्ष
के वनवास पर थे और उन्होंने चित्रांगदा से विवाह ही नहीं किया बल्कि बभ्रवाहन
जैसा पुत्र भी पैदा किया। इतना ही नहीं इसी काल में अर्जुन ने सुभद्रा का हरण करके
उससे विवाह किया और एक वर्ष द्वारका में उसके साथ बिताया, पुष्कर में रहे और फिर बारह वर्ष
पूरे होने पर इन्द्रप्रस्थ लौट आए।72 साफ है कि
इस बारह वर्ष के वनवास के दौरान अर्जुन किसी ब्रह्मचर्य या पश्चाताप की अपेक्षा अपनी
कामवासना की पूर्ति निरंतर करते रहे और एक नहीं दो-दो विवाह कर
डाले। इस प्रकरण से इस निष्कर्ष पर पहुंचना गलत नहीं होगा कि अर्जुन अपनी पत्नी द्रोपदी
को अपने भाइयों से साझा करने के विरोध में वनवास गए थे और वहीं अर्जुन ने अपनी कामवासना
को शांत करने के मार्ग तलाशे।
लेकिन यह महाभारत है जिसमें तर्क-विवेक के लिए कोई खास जगह ही नहीं है।
इसमें आगे उल्लेख है-‘द्रौपदी के गर्भ से भी पांचों पाण्डवों द्वारा एक-एक वर्ष के अंतर पर पांच पुत्र उत्पन्न
हुए।’73
अब प्रश्न उठता है कि जब अर्जुन वनवास के लिए चले गए थे तब द्रोपदी
विवाह के नियम के अनुसार पहले युधिष्ठिर के पास थी। उसे युधिष्ठिर के बाद भीम के साथ
एक निश्चित अवधि गुजारने के बाद अर्जुन के पास आना था। इससे पहले ही अर्जुन वनवास के
लिए प्रस्थान कर गए थे तो पांच साल में एक-एक वर्ष के अंतराल
से द्रोपदी से पांचों भाइयों से पांच बच्चे कैसे पैदा हो गए। चलो मान लो कि पांच वर्ष
में पांच बच्चे पैदा हो गए लेकिन अर्जुन की अनुपस्थिति में अर्जुन का बच्चा द्रोपदी
से पैदा हो गया, यह कैसे मान लें। इस प्रकरण में भी एक बड़ा सवाल
यह है कि जब अर्जुन अपनी बारी आए बगैर ही बारह वर्ष के लिए वनवास चले गए थे तो इस संभावना
से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि द्रोपदी को भोगने की उनकी बारी अन्य चारों भाइयों
द्वारा कई-कई टर्म भोगने के बाद आई हो। यदि ऐसा था तो इस संभावना
से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि अर्जुन कभी द्रोपदी के साथ पति के रूप में
रहे ही नहीं।
यहां सवाल यह नहीं है कि अर्जुन ने द्रोपदी का भोग
किया या नहीं, सवाल यह है कि जिस स्त्री
ने स्वयंवर में किसी व्यक्ति को अपना पति पूरे विधि-विधान के
हिसाब से माना लेकिन उसके साथ जीवन भोग का उसे अवसर ही नहीं मिला और बाकि ऐरे–गैरे
उसकी अस्मिता से खिलवाड़ करते रहे। यह स्त्री की विवशता नहीं तो क्या है। स्वयंवर
में कोई मर्यादा नहीं, कन्या को अपना वर अपनी इच्छा से चुनने
का कोई अधिक स्कोप नहीं। कोई वीर या कोई तथाकथित ऋषि ही उसे चुनता/जीतता या हासिल कर सकता था। राजा की संपत्ति, शौर्य और
वैभव मात्र ही ऐसे मानदंड थे और मूलत: ऐसे ही आधारों पर पुरुष
नारी को अपनी पत्नी के रूप में स्थान प्रदान करता था। इसमें नारी की अपनी मर्जी या
स्वेच्छा के लिए कोई स्थान नजर नहीं आता। पूरा महाभारत स्त्री को इसी परिधि में
कैद रखता है। महाभारत में नारी पुरुष की कठपुतली के रूप में नजर आती है और पुरुष निरंकुशतापूर्वक
उसका भोग करता है। उसका ही नहीं, वह कई-कई पत्नीयों के साथ-साथ अनेक दासियों का भी भोग करता है। उदाहरण के लिए विचित्रवीर्य
की दो, पांडु की दो, अर्जुन की चार (द्रोपदी, उलूपी, चित्रांगदा और
सुभद्रा)74 और कृष्ण की सौलह हजार।75
इस सब के बावजूद भी नारी को कभी विश्वास का पात्र
नही माना जाता था। इस हकीकत से रूबरू होने के लिए महाभारत से कुछ उद्धरण लिए जा
सकते हैं। एक-दिव्य सभा में नारद के प्रवचन
में एक प्रश्न यह भी आता है-‘आप स्त्रियों को सुरक्षित
और संतुष्ट तो रखते हैं? कहीं आप उन पर विश्वास करके उन्हें
गुप्त बात तो नहीं बता देते?’76
‘विधुर दुर्योधन से कहते हैं-‘दुर्योधन!
तुम अच्छे बुरे कामों में मीठी बात सुनना चाहते हो?
अरे भाई! तब तो तुम्हें स्त्रियों और मुखों
की सलाह लेनी चाहिए।’77
तीन--दुष्यंत शकुंतला से जब उनके और अपने विवाह
की बात राजदरबार में करते हैं तो कहते हैं-‘स्त्रियां तो प्राय: झूठ बोलती ही हैं तुम्हारी बात पर
भला कौन विश्वास करेगा। साफ हैं कि उन्हें किसी प्रकार की गुप्त बातें नहीं बताई
जाती थी और न ही उन पर विश्वास ही किया जाता था। मीठी बातों को संबंध सिर्फ मूर्खों
और स्त्रियों से जोड़कर यह बताने की कोशिश की गई है कि स्त्रियां मूर्ख होती हैं। दुष्यंत
ऐपीसोड एक कदम आगे बढ़कर यह संदेश देता है स्त्रियों पर कोई विश्वास नहीं करता और
न ही करना चाहिए। ये सारी स्थितियां स्त्री के प्रति पुरुषवादी मानसिकता की बेहद
नकारात्मक तस्वीर प्रस्तुत करती हैं। कमोबेश आज भी स्थिति ऐसी ही नजर आती है।
इसके विपरीत स्त्री सदा ही समर्पित नजर आती है।
इसी महाभारत में द्रोपदी द्वारा सत्यभामा को दिनचर्या बताई गई यह कितनी विश्वसनीय
है और कितनी नहीं, लेकिन
स्त्री के विषय में कोई राय बनाने में शायद यह कुछ मदद कर सकती है। दिनचर्या कुछ इस
प्रकार है-‘मैं अहंकार और काम-क्रोध को छोड़कर बड़ी सावधानी से पांडवों की, उनकी अन्यान्य स्त्रियों के सहित सेवा करती हूं। मैं ईष्या से दूर रहती
हूं और मन को काबू में रखती हूं। मैं अभिमान को अपने पास नहीं फटकने देती। मैं कटु
भाषण से दूर रहती हूं, असभ्यता से खड़ी नहीं होती, खोटी बातों पर दृष्टि नहीं डालती, बुरी जगह नहीं बैठती....अपने पतियों के भोजन किए बिना भोजन नहीं करती, स्नान
किए बिना स्नान नहीं करती और बैठे बिना स्वयं नही बैठती। जब जब मेरे पति घर में आते
हैं, तभी मैं खड़ी होकर आसन और जल देकर उनका सत्कार करती हूं।
मैं घर के बरतनों को मांज-धोकर साफ रखती हूं, मधुर रसोई तैयार करती हूं। समय पर भोजन कराती हूं। सदा सावधान रहती हूं,
घर में गुप्त रूप से अनाज का संचय रखती हूं और घर को झाड़-बुहार कर साफ रखती हूं। मैं बातचीत में किसी का तिरस्कार नहीं करती,
कुल्टा स्त्रियों के पास नहीं फटकती और सदा ही पति के लिए अनुकूल रहकर
आलस्य से दूर रहती हूं। मैं दरवाजे पर बार-बार जाकर खड़ी नहीं
होती तथा खुली या कूड़ा-करकट डालने की जगह भी अधिक नहीं ठहरती,
किंतु सदा ही सत्यभाषण और पति की सेवा मे तत्पर रहती हूं। पति के बिना
अकेले रहना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है।....यह लिस्ट राजकाज
के, दान-दक्षिणा, दासियों का भरण-पोषण, हाथी-घोड़ों के मुद्दे, परिवार सेवा और न जाने क्या–क्या
है इतनी लम्बी है कि इसका जवाब नहीं। इन बेहूदगियों को देखकर पाठक खुद ही अंदाजा लगा
सकते हैं कि इनमें कितनी सत्यता हो सकती है और स्त्री की स्थिति क्या हो सकती है।
मेरे कहने लायक शायद कुछ है ही नहीं।
महाभारत में महिलाओं के खरीद-फरोख्त जैसे प्रकरण देखने को मिलते
हैं। उद्धरण कुछ इस प्रकार है-कन्या के विवाह के संबंध में युधिष्ठिर
भीष्म से पूछते हैं-‘पितामह! यदि एक मनुष्य ने विवाह पक्का
करके कन्या का शुल्क (मूल्य) दे दिया,
दूसरे ने शुल्क देने का वादा करके व्याह पक्का किया हो, तीसरा उसी कन्या को बलपूर्वक ले जाने की बात कर रहा हो, चौथा उसके भाई-बंधुओं को विशेष धन का लोभ दिखाकर व्याह
करने को तैयार हो और पांचवा उसका पाणीग्रहण कर चुका हो तो धर्मत: वह कन्या किसकी पत्नी मानी जाएगी?78 इस उद्धरण से स्पष्ट है कि महाभारत काल में महिलाओं
को पत्नी बनाने के लिए मूल्य/शुल्क देना, बलपूर्वक हासिल करना, बंधु-बांधवों को विशेष धन देना व बलपूर्वक भी हासिल करने
का चलन सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा जैसा था। अब प्रश्न यह भी उठता है कि क्या
उस जमाने में सामान्य विवाह का प्रचलन नहीं था?
एक दूसरी स्थिति यह भी थी कि वहां जब महिलाएं दासी के रूप में हजारों-लाखों
की संख्या में होती थी तो जन सामान्य के लिए बहुत अधिक संभव है कि पुरुष-महिला अनुपात इतना कम हो जाता होगा कि जनसाधारण को महिलाओं की खरीद-फरोख्त करनी पड़ती होगी जैसा कि युधिष्ठिर व भीष्म के संवाद से जाहिर होता
है।
यहां एक बात और विचार करने लायक है, वह यह कि उस जमाने में भोग के लिए
सिर्फ युवा दासियों को निरंतर राजाओं और राजदरबारों में भर्ती किया जाता होगा और जो
दासियां उम्रदराज हो जाती होंगी, उन्हें एक प्रकार से रिटायर
या अन्य प्रकार की सेवाओं के लिए उपयोग किया जाता होगा। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है
कि राजा कई-कई रानियां रखते थे और दासियों की कोई सीमा ही नहीं
थी। कृष्ण की पत्नीयों की संख्या सौलह हजार बताई जा रही है तो जाहिर की आम आदमी
के लिए विवाह के लिए कन्या सिर्फ खरीद-फरोख्त के आधार पर ही
मिलती होगी और आर्थिक व शारीरिक रूप से कमजोर पुरुषों का एक ऐसा बड़ा समूह भी हो सकता
है जिन्हें स्त्री पत्नी के रूप में उपलब्ध ही नहीं होती होगी। इस आधार पर इस संभावना
से इंकार नहीं किया जा सकता कि उस जमाने में महिलाएं जिसकी लाठी उसकी भैस की तर्ज पर
हासिल होती थी। ऋषियों द्वारा राजकुमारियों को हासिल किया जाना, राजाओं द्वारा स्त्रियों को सेनाबल व स्वयंवर (कई मामले
में आडम्बर युक्त जैसा द्रोपदी के केस में होता है) के आधार
पर हासिल किया जाना और विभिन्न तथाकथित शुभ अवसरों पर हजारों की संख्या में महिलाओं/दासियों
को उपहार में दिया जाना और ऊपर वर्णित खरीद-फरोख्त की परंपरा
तो ‘जिसकी लाठी उसी की भैंस’ की संस्कृति की ओर प्रबल रूप से इशारा करती है। इस विषय में अंतिम निर्णय
पाठकों पर छोड़ना ही श्रेयकर होगा।
महाभारत में विदुर को निरंतर विद्वान और राजकीय
मर्यादाओं का पालन करने वाला कहा गया है लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता। इसे कुछ इस प्रकार
समझा जा सकता है-‘युद्ध
के उपरांत जब कुंती, गांधारी,
धृतराष्ट्र आदि वन में जा रहे थे तो विदुर (संजय
भी साथ गया था) अपनी पत्नी को छोड़कर वन क्यूं गए।’79 यहां अपनी पत्नी के संबंध में न्याय
जैसा कुछ भी नजर नहीं आता। ऐसा लगता है कि वे भी स्त्री विरोध की उसी धारा में बह
रहे थे जिसमें महाभारत के अन्य तथाकथित नायक बह रहे थे। ऐसा लगता है कि विदुर अपने
पूरे जीवनकाल में दासता का ही निर्वाह करते रहे और जीवन के अंतिम पड़ाव पर अपनी पत्नी
व बच्चों को छोड़कर वन चले जाना भी उनकी दासता का ही नमूना है, किसी विद्वता का नहीं।
महाभारत में भीष्म व कृष्ण द्वारा आमतौर पर
अर्जुन/भीम/युधिष्ठिर
को कुंतीनंदन कहा गया हैं। पाण्डु नंदन शायद ही कभी कहा गया हो। हां इन्हें पाण्डव
जरूर कहा जाता था लेकिन मुझे इनका पांडव कहा जाना भी तर्कयुक्त नहीं लगता क्योंकि
ये सभी ऋषि दुर्वासा द्वारा कुंती को दिए गए तथाकथित मंत्र से पैदा हुए थे और
इसमें पांडू का कोई योगदान नहीं था। संभवत: इसी वजह से इन्हें
मां ने नाम से कुंतीनंदन या कौंतेय कह कर पुकारा जाता था। इसी के चलते दुर्योधन को
गांधारीनंदन का प्रयोग भी काफी देखने को मिलता है जबकि उसके पिता के विषय में पांडवों
जैसी संदिग्धता नहीं थी। धृतराष्ट्र को भी आमतौर पर अम्बिका नंदन कहा गया है।80
धृतराष्ट्र को वीचित्रवीर्य नंदन या व्यासनंदन कहना खतरे से खाली नहीं
था, संभवत: इसी लिए धृतराष्ट्र को मां
के पुत्र के रूप में संबोधित किया जाता था। एक सवाल यह भी उठता है कि पूरे महाभारत
में और महाभारत सीरियल में भीष्म को गंगापुत्र (शान्तनु नंदन
बहुत कम या शायद ही कहा गया है) कहकर ही अधिकतर संबोधित किया
गया है।’81
क्या इसके पीछे भी तथाकथित पांडवों को कुंतीनंदन कहे जाने को अमलीजामा
पहनाना था। वैसे भी संकट की घड़ी में और मृत्यु शैया पर भी भीष्म अपनी मां को तो
याद करते दिखलाई देते हैं, उस पिता को नहीं जो उन्हें इच्छा
मृत्यु का वरदान देता है। टी वी सीरियल में भी भीष्म की मृत्यु के समय गंगा को ही
दिखाया गया है शान्तनु को नहीं। इसके विपरीत व्यास को पराशरनंदन कहा गया है।’82 व्यास को सत्यवती नंदन भी कहा गया
है।83 शायद व्यास को लेकर पिता माता के संबंध कोई
बड़ी कंट्रोवर्सी नहीं थी या उन्हें दोनों ही रूप में स्वीकार्यता हासिल हो गई थी।
लेकिन पूरे घटनाक्रम पर जब हम विचार करते हैं तो पहला प्रश्न दिमाग में आता है कि
पुत्र को मां के नाम से संबोधित किया जाना क्या नारी को सम्मान देने के लिए था। लेकिन
महाभारत में नारी के प्रति ऐसे सम्मान के लिए कोई जगह नजर नहीं आती। इसके पीछे एक
दूसरी वजह भी हो सकती है कि इनके पिता की भूमिका इनके जन्म को लेकर या तो संदिग्ध
थी या पितृपक्ष किसी सम्मान का द्योतक नहीं था। इन दोनों में से कौन सी वजह ज्यादा
तर्कयुक्त है, संभवत: इसका फैसला पाठकों
पर ही छोड़ना श्रेयकर होगा।
महाभारत में जहां एक ओर स्त्री को भोग की वस्तु
के रूप में स्वीकार किया गया है और सारी नैतिकता व मर्यादा को ताक पर रख दिया गया
है, वहीं दूसरी और एक उदाहरण अपवाद
रूप में अर्जुन का मिलता है। उर्वशी के अर्जुन पर आशक्त होने की स्थिति में अर्जुन
कहते हैं-‘नि:संदेह तुम मेरी गुरुपत्नी के समान हो। देव सभा में मैंने तुम्हें निर्निमेष
नेत्रों से देखा था अवश्य, परंतु मेरे मन में कोई बुरा भाव नहीं
था।...उर्वशी ने कहा-‘वीर!
हम अप्सराओं का किसी के साथ विवाह नहीं होता। हम स्वतंत्र हैं। इसलिए
मुझे गुरु की पदवी पर बैठाना उचित नहीं है। आप मुझ पर प्रसन्न हो जाइए और मुझ कामपीडि़ता
का त्याग मत कीजिए। मैं कामवेग से जल रही हूं। आप मेरा दुख मिटाइए।’84 इस घटनाक्रम में अर्जुन का उर्वशी को
गुरुपत्नी के रूप में मानना और उसकी पेशकश को ठुकराना महाभारत में एक अपवाद जैसा नजर
आता है। महाभारत में स्त्री के प्रति इतना गैर-जिम्मेदाराना
रवैया और तर्क मौजूद हैं कि इस घटना/अपवाद के तर्क पर यकीन करना
मुश्किल हो रहा है। खैर...
उपरोक्त विचारमंथन से यह तो स्पष्ट है कि उस
काल में स्त्री की स्थिति अच्छी कतई नहीं थी। यदि इसे बेहद अन्यायपूर्ण, आपत्तिजनक व खंडनीय कहा जाए तो अनुचित
नहीं होना चाहिए। इसकी विश्वसनीयता के संबंध में जैसा कि इस निबंध के शुरु में कहा
गया है-‘देवताओं ने महाभारत को वेदों के साथ रखकर तराजू पर
तौला है। उस समय चारों वेदों से इसकी महत्ता अधिक सिद्ध हुई है। महत्ता और भगवत्ता
के कारण ही इसे महाभारत कहते हैं।’85 पर विश्वास करें तो कहा जा सकता है कि वेद भी स्त्री
के प्रति कोई न्याय नहीं करते। यदि सरसरी तौर पर इसकी तुलना रामायण से करें तो ऐसा
लगता है कि इन तथाकथित धर्मग्रंथों को लिखने वालों द्वारा इरादतन रामायण व महाभारत
में काफी समानता करने की कोशिश की गई है। जैसे दशरथ के पुत्र फल से हुए उसी प्रकार
पांडव मंत्रों से पैदा हुए और दोनों की स्थिति एक जैसी संदिग्ध नजर आती है। राम सीता
को स्वयंवर में जीतता है, वैसा
ही अर्जुन करता है। राम सीता के साथ वनवास जाता है, पांडव भी
द्रोपदी के साथ अज्ञातवास जाते हैं। वहां सीता को रावण चुराता है, यहां उसका प्रयास जयद्रथ करता है। वहां चरित्र लांछन के कारण सीता को अग्नि-परीक्षा से गुजरना पड़ता है और अंतत: उसे वन में छोड़
दिया जाता है। यहां अर्जुन अपने चरित्र पर लांछन (द्रोपदी और
युधिष्ठिर के एकांतवास में प्रवेश) के कारण बारह वर्ष के लिए
वनवास चले जाते हैं और एक प्रकार से द्रोपदी का त्याग ही कर देते हैं। यदि सीता को
नारी का प्रतीक मानें तो रामायण को स्त्री हितों की रक्षक, न्याय
प्रदान करने वाली व स्त्री के सशक्तिकरण की पक्षधर कतई नहीं कहा जा सकता। मुझे लगता
है कि रामायण का मूल्यांकन महाभारत की तर्ज पर होना चाहिए और नारी जीवन से जुड़ी वर्तमान
समस्याओं के लिए जिम्मेदार इतिहास व तथाकथित धर्मग्रंथों के उन संदर्भों/उद्धरणों का जोरदार तरीके से खंडन होना चाहिए जो आज भी नारी अस्मिता पर हमला
ही नही करते बल्कि उनके पैरों में बेडि़यां डालकर उसके सशक्तिकरण की प्रक्रिया को चुनौती
देते हैं।
संदर्भ:
प्रस्तुत संदर्भ संक्षिप्त महाभारत (प्रथम व द्वितीय खंड, महाभारत का सरल व संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद, गीता प्रेस, गोरखपुर, तीसवां पुनर्मुद्रण, संपादन
व संशोधक जयदयाल गोयन्दका) से लिए गए हैं। 1-प्रकाशक का निवेदन
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12-पृष्ठ 457 (खंण्ड दो) 13-पृष्ठ 329-330 14- पृष्ठ 59 15-पृष्ठ 31 16- पृष्ठ 31 17- पृष्ठ 08 18-पृष्ठ 236 19-पृष्ठ 136-137 20-पृष्ठ 67 21-पृष्ठ 296 22- पृष्ठ 253 23-पृष्ठ 248 24-पृष्ठ 234 25-पृष्ठ 235 26-पृष्ठ 724 27-पृष्ठ 120 28-पृष्ठ 34 29-पृष्ठ 34 30- पृष्ठ 54 31-पृष्ठ 28 32- पृष्ठ 55 33- पृष्ठ 49 34- पृष्ठ 55 35- पृष्ठ 57 36- पृष्ठ 57 37- पृष्ठ 58 38- पृष्ठ 55 59- पृष्ठ 39 40- पृष्ठ 120 41- पृष्ठ 57 42- पृष्ठ 57 43- पृष्ठ 55 44- पृष्ठ 393 45- पृष्ठ 393 46- पृष्ठ 394 47- पृष्ठ 395 48- पृष्ठ 395 49- पृष्ठ 32 50- पृष्ठ 62 51- पृष्ठ 62 52- पृष्ठ 63 53- पृष्ठ 395 54- पृष्ठ 396 55- पृष्ठ 92 56- पृष्ठ 101 57- पृष्ठ 102 58- पृष्ठ 103 59- पृष्ठ 103 60- पृष्ठ 85 61- पृष्ठ 86 62- पृष्ठ 106 63- पृष्ठ 115 64- पृष्ठ 120 65- पृष्ठ 166 66- पृष्ठ 164 67- पृष्ठ 116 68- पृष्ठ 116 69- पृष्ठ 226(खंड दो) 70- पृष्ठ 118 71- पृष्ठ 119 72- पृष्ठ 119 73- पृष्ठ 120 74- पृष्ठ 116-118 75- पृष्ठ 811 (खंड दो) 76- पृष्ठ 130(खंड दो) 77-163
78- पृष्ठ 523 (खंड दो) 79- पृष्ठ 788 (खंड दो) 80- पृष्ठ 777 (खंड दो) 81-651 (दो) 82- पृष्ठ 651 (खंड दो) 83- पृष्ठ 780 (खंड दो) 84- पृष्ठ 205 85- पृष्ठ 04
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